Saturday, December 4, 2010
स्पेक्ट्रम घोटाला
जागो मेरे देश
बहुत ही कठिन घड़ी है।
हर ओर राडिया-सी
सुरसा मुंहखोल खड़ी है।।
राजाओं के जाने कितने
छल उघड़ेंगे।
बरखाओं के पट से जब
कंचुकि खिसकेंगे।।
वीर तुम्हारे जाने कितने
अभी पड़े हैं।
सतरंगी घोटालों में
आकंठ गड़े हैं।।
पूंजीपतियों की आस्तीन
में ही नाग पले।
शनैः-शनैः टाटा-अंबानी
सबके खेल खुले।।
क्षण में लाख-करोड़ों के
मसविदे तयार हुए।
किसने देखा कर्जतले
कितने तन छार हुए।।
सेंसेक्स की संख्या पर
खूब उछलता था।
कंगाल राष्ट्र बस दावों में
आगे बढ़ता था।।
राजनीति के हाथों में
आकर निचुड़ गए।
पेट गरीबों के
भूख से सिकुड़ गए।।
सत्ता मूक-बधिर है
महिषी अंधी है।
दुःशासन हंस रहा
द्रौपदी नंगी है।।
जुए में सब फंसे
भेद कौन खोलेगा।
रार ठनेगी, भीष्म
अगर बोलेगा।।
सोचा था, कुछ न्याय
पालिका तोलेगी।
और, जरूरत पड़ी
मूक जनता बोलेगी।।
भ्रष्टतंत्र के धुरविरोध में
लोग चलेंगे।
पाषाण हो चुके देव
तनिक तो पिघलेंगे।।
मुट्ठियां भिंचेंगी
उर में भूचाल उठेगा।
जिस्मों पर तारी
कायरता का जाल कटेगा।।
देख रहा हूं, किंतु
यहां सब उलटा है।
हर शख्स मौज में
और, व्यवस्था जिंदा है।।
लगता है उम्मीदें
सब बेमानी हैं।
लहू नहीं, अब जिस्म-
जिस्म में पानी है।।
Tuesday, November 30, 2010
नागार्जुन...गाली देकर
ऐसा नहीं है कि काव्य से मन भर गया है, न ही गद्य-लेखन में हाथ आजमाने की मंशा है। कोई धुरंधर लिक्खाड़ नहीं हूं, दूसरे शब्दों में कहें तो इसका दावा नहीं करता हूं। आजकल रोज मन उचट रहा है। रात-रात जागता हूं, दिन-दिन चिंतन करता हूं। चिंता है देश की, समाज की-आत्मघात की ओर बढ़ रही आदमीयत की। घोटालों से परदा उठना शुरू हुआ है, तो मेरे मन का कलुष धुलने लगा है। ज्योतिषी नहीं हूं परंतु आभास था कि सत्ता के पदतले बहुतों की चीख-पुकार दबी है। राजा हो या महाराजा, अब साफ होने लगा है कि प्रजा उनके लिए मात्र एक खिलौना है..खिलौना भी निर्जीव। चाहे जितना तोड़ो-मरोड़ो, कोई आह भी नहीं निकलती। यों तो मैं प्रायः सो जाता था, किंतु एक रात अचानक नागार्जुन आ खड़े हुए। पहले लगा स्वप्न देख रहा हूं, फिर सोचा कि जब सो ही नहीं रहा तो स्वप्न कैसा। देखकर हिम्मत बढ़ी। नागार्जुन बिहार के थे-कविता के जरिए कांटों का हार पहनकर निकलते थे। सौ गालियां मुझे निकालीं और कहा कि तूने पढ़ाई लिखाई काहे के लिए की। मैं बोला-पहले तो पता ही नहीं था, थोड़ा समझ बढ़ी तो लगा कि नौकरी वगैरह के लिए जरूरी है, सो पढ़ लिया। उन्होंने फिर पूछा-नौकरी क्यों की..। मैं बोला-घर-परिवार के लिए। सहसा उन्होंने घूरा और बोले-स्साले, नौकरी और घर-परिवार के लिए तो हर कोई जीता है, तुझमें अलग क्या है। मैं बोला-पता नहीं। बाबा, मेरा दिमाग मत खाओ, जो कहना है साफ-साफ कहो। रात के तीन बज रहे हैं, या तो जाओ या मझे सो जाने दो। वे मेरा सिर सहलाने लगे। फिर उन्होंने कहा-देख बेटा, तू कविता लिखता है। अच्छा लगता है। बस एक काम कर। कुछ दिनों के लिए मुझे अपने भीतर पनाह दे दे। मैंने कहा-क्यों? वे बोले-इन स्साले राजनीतिज्ञों को कुछ गाली निकालनी है। मरते समय दिल में कुछ कसक रह गई थी, सो अब तू पूरा कर लेने दे। मैं पहले तो अचकचाया, फिर मुझे लगा कि बाबा सही ही बोलता है। इस राजतंत्र में, राजनीति में बचा ही क्या है। सारा तंत्र सड़ा-गला है। आमजन इसके बोझ तले दबा मरा जा रहा है। इससे बचा कैसे जा सकता है? जाहिर है कि इसकी जड़ खोदनी होगी, इसे तबाह करना होगा। इस देश को एक बार पूरा का पूरा झाड़ना होगा। जन को कोसना होगा, धन को कोसना होगा। राजनीति को हटाना होगा, राजनेताओं को हटाना होगा। इन्हें हटाया एक ही तरीके से जा सकता है-गाली देकर। सर्वोत्तम उपाय है गाली। इन्हें हर कोई गरियाए, पानी पी-पीकर कोसे। आमदिन हों या चुनाव के-इनको इनके काले चिट्ठे दिखाओ। हर जन के मुंह पर स्पेक्ट्रम लग जाए ताकि एक-एक गाली अनेक रंगों से होकर आए। द्वार-द्वार पर गाली होगे-जिह्वा-जिह्वा पर आलोचना के विषस्वर हों। जो काव्य में दे सके, काव्य में दे, गद्य की विधा हो तो गद्य में-बस गाली दे। कुछ ही दिन..और आप बहुत कुछ बदलता महसूस करेंगे। और, अगर यह गाली देना शुरू न हुआ तो जल्द ही सबकुछ मरता हुआ देखेंगे। राजनीति पतन की पराकाष्टा पर पहुंच चुकी है, जन मरण के कगार पर। जागने का क्षण आज है, अभी ही। मैंने नागार्जुन को अपनी काया में पनाह दे दी है, अब बारी आपकी है।
Wednesday, November 24, 2010
विद्रोह
(आत्मीय स्वजन,
बहुत दिनों से व्यथित था। समझ नहीं पा रहा था क्या करूं। देश की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। गहरा प्रतिकार उठा है। सोचता हूं चंद लोग भी साथ चलें तो कुछ बदल सकता है। यह कविता एक गाली है। अच्छा बुरा नहीं जानता-नहीं जानना चाहता। अगर राष्ट्र को बचाना है-समाज एवं धर्म को बचाना है तो कुछ करना होगा। चार रौद्र कविताएं हैं। पहली प्रकाशित कर रहा हूं। आप साथ रहे तो आगे बढ़ूंगा अन्यता अकेला चलूंगा।
क्या कहते हो।)
आज बहुत मन खिन्न है।
दुनिया-दीन से भिन्न है।।
रोम-रोम में गाली है।
घृणा कंठ में पाली है।।
अतिरेक कहीं हो जाए न।
उदिध विकल हो जाए न।।
डर है सुनामी आने का।
लाशों के बिछ जाने का।।
नगर-नगर चौपट होंगे।
हर ओर बसे मरघट होंगे।।
बस चीख-पुकारे गूंजेगी।
और, दिशाएं सोचेंगी।
क्यों सागर असमय उछला।
किस अपराध का ये बदला।।
उत्तर न किसी से दे होगा।
मूक अश्रु पीना होगा।।
यदि विप्लव से बचना है।
शंखनाद यह सुनना है।।
कहता हूं, कान खुले रखना।
और, सत्य पर दृढ़ रहना।
हठधर्म नहीं सद्धर्म जिएगा।
राम-कृ ष्ण का कर्म जिएगा।।
असिधार अहिंसा तोलेगी।
शोणितधारा पथ खोलेगी।।
भालनोक पर सिर उछलेगा।
शव-शव शिव-शिव-हरि बोलेगा।
वीयर्हीन क्या जाचेंगे।
कमर्कांड भर बांचेंगे।
पुरुषत्वहीन सब सह लेंगे।
धर्म बिना भी रह लेंगे।।
किंतु स्वधर्मी ना जीएगा।
अमिय त्याग विष न पीएगा।
वो सत्ता से जूझेगा।
प्राण शंख में फूंकेगा।।
नहीं सहेगा दमन कभी भी।
और, सत्य का शमन कभी भी।।
लगे किसी को भले अनर्गल
भले कहे कोई दुर्बाद।
सत्य यही है, आज विधर्मी
छांट रहे हैं "गांधीवाद।।"
निरपेक्ष हुआ बस एक धर्म है।
तुष्टिकरण ही महत्कर्म है।।
राम मरे, मर जाए सीता
कृष्ण जरें, जरि जाए गीता।।
बाबर यहां दामाद है।
राम कथानकवाद है।।
गौरी-गजनी-चंगेज भले।
लूटे-खाए गए चले।।
आज वही आदर्श हैं।
मानव के उत्कर्ष हैं।।
राम झूठ रामायण गल्प।
कृष्ण शास्त्रछल का संकल्प।।
ऋषि परम्परा थोथी है।
महज कल्पना-पोथी है।।
रामसेतु परिहास है।
कल्पित है, बकवास है।।
सच कागज के नोट हैं।
औ" मुस्लिम के वोट हैं।।
हिंदू आतंकी-उन्मत्त।
विश्वविदित हिंसक-पथभ्रष्ट।।
धर्म गया, ईमान गया।
पुण्य-पाप संधान गया।
शंख बजाना पाप है।
मिला नया अभिशाप है।।
मंदिर पर अधिकार नहीं।
सामाजिक स्वीकार नहीं।।
बेटी-बहू बलत्कृत है।
जिह्वा भू पर लुंठित है।।
चीख निकल न पाती है।
पाषाण हो चुकी छाती है।।
राजनीति का मकड़ा है।
बुरी तरह से जकड़ा है।।
पुंसत्वहीन सब सत्ता में।
यूपी-दिल्ली-कलकत्ता में।।
चला रहे हैं गोरखधंधे।
दल के दल-दलदल गंदे।।
सरदार ठूंठ है निगुरा है।
राजनीति का मोहरा है।।
रानी के इशारे हिलता है।
हिलता है तो मिलता है।।
हिलना-मिलना बंद न होगा।
गोरखधंधा मंद न होगा।
कलमाड़ी भी, गलमाड़ी भी।
खा गए आंगन भी, बाड़ी भी।
शरद पंवारा चलता है।
देश भूख से मरता है।।
अंबर बाकी, चित्त मर गया।
चिदंबरम का वृत्त मर गया।
भगवा से नाराजी है।
खबर एक ही ताजी है।।
पासवान के पास नहीं है।
मथुरा-कासी रास नहीं है।।
माया के परपंच न घटते।
सारे दिग्जग शीश पटकते।।
गलियों में-चौबारों में।
चौक और चौराहों पे।।
जन-जन की खटिया खड़ी हो गई।
रखैल देश से बड़ी हो गई।
लालू की नथ न उतरेगी।
सपा वस्त्र अब क्या पहरेगी।।
कांग्रेस की आंख का पानी।
बूढ़ी वेश्या पर चढ़ी जवानी।।
देश की इज्जत तार-तार है।
मस्ती में वेश्या बजार है।।
विवसन होती बहू-बेटियां।
फेंक रही भाजपा गोटियां।।
देखो कैसी लूट मची है।
बस, टांगों में आंख फं सी है।।
मुफ्ती के नैनाविलास में।
आतंकी पलते प्रवास में।।
हिंदुविरोधी स्तुति में।
राष्ट्रविरोधी प्रस्तुति में।।
सारे जन ही उत्सुक हैं।
मानवाधिकारी प्रस्तुत हैं।।
कुछ इनके कुछ उनके हैं।
कुछ अपने ही मन के हैं।।
नब्बे फीसद अपराधी हैं।
संसद में सब साझी हैं।।
इनके हाथों कौन बचेगा।
देश छलेगा और जलेगा।।
राजनीति पर थूक रहा हूं।
क्रांतिशंख फिर फूंक रहा हूं।।
बुद्धि मरण में माती है।
जिसे व्यवस्था भाती है।।
जो इसमें विद्रूप सने हैं।
माटी के वे लोग बने हैं।।
यह तंत्र समर्थित जिनका है।।
मुर्दा हैं, क्या उनका है।।
और, सहा न जाता है।
हृदय फटा ही जाता है।।
कारा कठिन मिटानी है।
मुझको आग लगानी है।।
Saturday, November 13, 2010
मुर्दाघर
कभी-कभी
सारा दृश्य
बदल जाता है
संसार
मुर्दाघर सा लगता है
लोगबाग
बस दौड़ती हुई लाशें
कभी-कभी
लगता है
यहां कुछ
जिंदा नहीं है
कुछ मुर्दाखोर हैं
और, कुछ-
चीर-फाड़ करने वाले
कृत्रिम रुदन है
घुटी हुई चीखें
सड़े हुए मांस
और, उनसे रिसता
लिजलिजापन
इस लिजलिजेपन में
सहमी हुई-सी
कुछ जिंदगियां..
मन करता है
उन्हें बचा लूं
पर, क्या करूं
इन मरे हुए लोगों का
मुर्दाखोरों का
इन्हें दिलासा दूं
सहानुभूति जताऊं
व्यवस्था से
शिकायत करूं
अथवा, समूचे श्मशान में
आग लगा दूं...
Wednesday, November 3, 2010
ह्रदयदीप
हर दीया
माटी का है
बुझ जाएगा
तेल चुकेगा
बाती भी
जल जाएगी
तिमिर घना
घिर आएगा
घात लगेंगे...
तन छीजेगा
मन टूटेगा
कठिन बहुत
जीना होगा
विष ही
पीना होगा?
विष पीकर भी
प्राण धरेंगे
अमरित का
उत्सर्ग करेंगे
दीया टूटे
बाती रूठे
तेल चुके
सब साथी छूटें
किंतु, न तम से
हारेंगे
दीप ह्रदय का
बारेंगे
माटी के क्यों
दीप धरेंगे
क्षणभंगुर से
प्रीति करेंगे!
जब तक मन
चैतन्य भरा है
और, ह्रदय में
प्रेम खरा है
हम ही बाती
दीप बनेंगे
उस चिन्मय की
ज्योति बनेंगे
तेल नहीं यह रीतेगा
और, प्राण न छीजेगा
फिर, शाश्वत
भरमन होगा
दीपोत्सव
हरक्षण होगा।।
(आप सभी को दीपपर्व की मंगलकामना।)
Friday, October 15, 2010
तुकतुक
बड़ी आंखों के बड़े फायदे हैं...
पानी न हो तो लोग डर जाते हैं
और पानी ज्यादा हो तो डूबकर मर जाते हैं...।।
पानी न हो तो लोग डर जाते हैं
और पानी ज्यादा हो तो डूबकर मर जाते हैं...।।
Friday, August 20, 2010
मस्ती
हर कोई गरिया रहा
पानी पी-पी रोज।
पर महंगाई, न घटे
पिए खून की डोज।
पिए खून की डोज
ललाई खूब चढ़ी है।
जनता का खाली पेट
दिल्ली मस्त पड़ी है।
पानी पी-पी रोज।
पर महंगाई, न घटे
पिए खून की डोज।
पिए खून की डोज
ललाई खूब चढ़ी है।
जनता का खाली पेट
दिल्ली मस्त पड़ी है।
पीपली डाइंग
पीली पोली पीपली
मत कर इतना शोर।
डायन बड़ी खराब है
महंगाई बरजोर।
सत्ता ससुरी आसुरी
भरे चोर ही चोर।
खाई है, खा जाएगी
तुझे एकभर कौर।
मत कर इतना शोर।
डायन बड़ी खराब है
महंगाई बरजोर।
सत्ता ससुरी आसुरी
भरे चोर ही चोर।
खाई है, खा जाएगी
तुझे एकभर कौर।
सीधी चोट
महंगाई-भ्रष्टाचार-घोटाले
एक नहीं सौ-सौ होंगे।
कामनवेल्थ के गलियारे में
लुटनेवाले जौ-जौ होंगे।
अभी महज ये खेल बिका है
देश का बिकना बाकी है।
कलमाड़ी-से नमकहराम
जाने कितने-ठौ होंगे।।
एक नहीं सौ-सौ होंगे।
कामनवेल्थ के गलियारे में
लुटनेवाले जौ-जौ होंगे।
अभी महज ये खेल बिका है
देश का बिकना बाकी है।
कलमाड़ी-से नमकहराम
जाने कितने-ठौ होंगे।।
Friday, May 7, 2010
शोकगीत
ऐ गीत,
उनसे जा कहो
यों हृदय
मेरा न देखें
चंचला संध्या न देखें
सहमा हुआ
सवेरा न देखें
प्रीति के प्रारंभ में
सम्बंध सारे जोड़ लें
किंतु, इस सम्बंध की
भावना के छंद की
आज ही आयु न पूछें
घाव का घेरा न देखें।
प्रणय की हर वेदना
यों भले ही क्रूर है
किंतु, उनके प्रेम की
हर क्रूरता मंजूर है
उनके समीप में
साथ में
मैं चाहता हर घात उनका
अपने कोमल हाथ में
उनसे कहो, ऐ गीत
वो भावभर मेरा न देखें
सौन्दर्य मुझमें खूब है
विरह से झुलसा हुआ
वो मेरा चेहरा न देखें।
उनसे जा कहो
यों हृदय
मेरा न देखें
चंचला संध्या न देखें
सहमा हुआ
सवेरा न देखें
प्रीति के प्रारंभ में
सम्बंध सारे जोड़ लें
किंतु, इस सम्बंध की
भावना के छंद की
आज ही आयु न पूछें
घाव का घेरा न देखें।
प्रणय की हर वेदना
यों भले ही क्रूर है
किंतु, उनके प्रेम की
हर क्रूरता मंजूर है
उनके समीप में
साथ में
मैं चाहता हर घात उनका
अपने कोमल हाथ में
उनसे कहो, ऐ गीत
वो भावभर मेरा न देखें
सौन्दर्य मुझमें खूब है
विरह से झुलसा हुआ
वो मेरा चेहरा न देखें।
Wednesday, April 28, 2010
अवांछित
वो कहते हैं
जिदंगी कठिन है
गरल-की तरह
इसे जीने के लिए
पीना जरूरी है..
और कई बार..
यह भी कि-
जीते जाएं, इसलिए
बिकना मजबूरी है
बिकने के लिए-
वेश्या होना जरूरी है
मैं सोचता हूं-
क्या जिंदगी वाकई ऐसी है
पीना, बिकना और वेश्या होना
यदि जिंदगी की मजबूरी है
तो मेरे दोस्त-
तुम कहो
ऐसी जिंदगी जीना
क्योंकर जरूरी है।।
Tuesday, April 27, 2010
सबक
Wednesday, March 10, 2010
Sunday, March 7, 2010
हया
भय और संकोच ने
घेर लिया
कुछ क्षण को धड़कनें
थम गईं
ऐसा लगा
चेहरा लाल हो गया
पोर-पोर ढीला
पैर कांप गए
नजर फिर गई
सच कहती हूं
मैं पहली बार
हया के मारे मर गई..
हुआ यूं कि-
रोज जिस आईने को -
देखती थी बन-संवरकर
उस आईने ने
देखना सीख लिया
और आज
जब मैं
नहा-धोकर
अचानक खड़ी हुई
सामने
मुझ
हास्यवदना
सिक्तवसना को
चोर आंखों से
उसने देख लिया।।
घेर लिया
कुछ क्षण को धड़कनें
थम गईं
ऐसा लगा
चेहरा लाल हो गया
पोर-पोर ढीला
पैर कांप गए
नजर फिर गई
सच कहती हूं
मैं पहली बार
हया के मारे मर गई..
हुआ यूं कि-
रोज जिस आईने को -
देखती थी बन-संवरकर
उस आईने ने
देखना सीख लिया
और आज
जब मैं
नहा-धोकर
अचानक खड़ी हुई
सामने
मुझ
हास्यवदना
सिक्तवसना को
चोर आंखों से
उसने देख लिया।।
तुक-तुक
एक बार जल जाने से
अच्छा रोज सुलगना है..
घनीभूत हो धूम
एकदिन
जलकण में परिवर्तित होगा
और, किसी चातक-जीवन की
इस जल ही से प्यास बुझेगी।।
अच्छा रोज सुलगना है..
घनीभूत हो धूम
एकदिन
जलकण में परिवर्तित होगा
और, किसी चातक-जीवन की
इस जल ही से प्यास बुझेगी।।
Sunday, February 14, 2010
तुक-तुक-3
उनका होना
मेरा होना
उनके होने-
में सब होना
जीवन था
कुछ और
न होना
अहक हृदय की
मन का कोना
पोर-पोर का
फटकर रोना
अब लगता है
उन बिन होना
न कुछ होना
कुछ न होना।।
मेरा होना
उनके होने-
में सब होना
जीवन था
कुछ और
न होना
अहक हृदय की
मन का कोना
पोर-पोर का
फटकर रोना
अब लगता है
उन बिन होना
न कुछ होना
कुछ न होना।।
Saturday, February 13, 2010
Tuesday, February 9, 2010
Tuesday, February 2, 2010
स्वप्न और जिंदगी
Saturday, January 30, 2010
दर्द
कठिन नहीं होता
चुप-सी चीख
पी जाना
पत्थर-सा
दर्द सह जाना
सच कहता हूं
कभी नहीं खलता
रक्त के बहाने
हृदय का बह जाना
तकलीफ
तब होती है
जब
कोई आंख मूंद
होंठ सी-कर
हंसता है
किसी की
पीड़ा पर
पीसता है नमक
गहरे घाव पर
थोड़े-भर
स्वाद के लिए
और,
नमकीन मिजाज के लिए।।
चुप-सी चीख
पी जाना
पत्थर-सा
दर्द सह जाना
सच कहता हूं
कभी नहीं खलता
रक्त के बहाने
हृदय का बह जाना
तकलीफ
तब होती है
जब
कोई आंख मूंद
होंठ सी-कर
हंसता है
किसी की
पीड़ा पर
पीसता है नमक
गहरे घाव पर
थोड़े-भर
स्वाद के लिए
और,
नमकीन मिजाज के लिए।।
Friday, January 29, 2010
प्रिये!
क्षणिका-9
गीत-1
मत रो यूं, ऐ प्राण विकल
तुझको अभी संभलना होगा।
पथ जितना है, चलना होगा।।
मान दुःख-रजनी आज यहां
पीड़ा-पराग-मधु जाल यहां
माया के इस हरसिंगार से
तुझको साफ निकलना होगा।।
भंगुर है हर शूल पंथ का
भ्रामक है हर फूल अंक का
निद्रा की इस घाटी से
आंखे खोल गुजरना होगा।।
तम और सघन होता जाएगा
हर स्वप्न हवन होता जाएगा
चीर चदरिया कठिन मोह की
तुझको स्वयं संवरना होगा।।
शिखर सामने नत होने को
तेरे पास भी क्या खोने को
जन्म-मरण को लगा दांव पर
तुझे लक्ष्य-शर करना होगा।।
तुझको अभी संभलना होगा।
पथ जितना है, चलना होगा।।
मान दुःख-रजनी आज यहां
पीड़ा-पराग-मधु जाल यहां
माया के इस हरसिंगार से
तुझको साफ निकलना होगा।।
भंगुर है हर शूल पंथ का
भ्रामक है हर फूल अंक का
निद्रा की इस घाटी से
आंखे खोल गुजरना होगा।।
तम और सघन होता जाएगा
हर स्वप्न हवन होता जाएगा
चीर चदरिया कठिन मोह की
तुझको स्वयं संवरना होगा।।
शिखर सामने नत होने को
तेरे पास भी क्या खोने को
जन्म-मरण को लगा दांव पर
तुझे लक्ष्य-शर करना होगा।।
क्षणिका-8
अनथक हंसता रहा
मैं
उन्हें हंसाने को
उनके स्याह चेहरे पर
रौनक नहीं आई
कौन कहता है
चाहने भर से
हादसे
बिसर जाते हैं।।
मैं
उन्हें हंसाने को
उनके स्याह चेहरे पर
रौनक नहीं आई
कौन कहता है
चाहने भर से
हादसे
बिसर जाते हैं।।
क्षणिका-7
तुम्हारी
प्यार भरी
थपकी
मुझे भाने लगी
यही वजह है, शायद
कि अब
वो मुझे
सुलाने की जगह
जगाने लगी..
प्यार भरी
थपकी
मुझे भाने लगी
यही वजह है, शायद
कि अब
वो मुझे
सुलाने की जगह
जगाने लगी..
Thursday, January 28, 2010
क्षणिका-6
कभी धरा पर, कभी गगन में
कभी क्षितिज के पार थे।
छूम-छनन गाता था मन
वो किस वीणा के तार थे।।
माटी प्यारी लगती थी
जेठ-पूस ना भेद था।
अहो, पुनः वो दिन फिरि आते
जब जीवन निर्वेद था।।
काश लौट चलते उस जीवन
माटी-माटी राम निरखते।
थकते-गिरते और भटकते
आखिर, मां की गोद लिपटते।
कितना अच्छा होता हम-तुम
फिर मानुस बन जाते।
ढुलक कपोलों पर गिरते
आंसू मोती बन जाते।।
कभी क्षितिज के पार थे।
छूम-छनन गाता था मन
वो किस वीणा के तार थे।।
माटी प्यारी लगती थी
जेठ-पूस ना भेद था।
अहो, पुनः वो दिन फिरि आते
जब जीवन निर्वेद था।।
काश लौट चलते उस जीवन
माटी-माटी राम निरखते।
थकते-गिरते और भटकते
आखिर, मां की गोद लिपटते।
कितना अच्छा होता हम-तुम
फिर मानुस बन जाते।
ढुलक कपोलों पर गिरते
आंसू मोती बन जाते।।
Wednesday, January 27, 2010
क्षणिका-4
Monday, January 25, 2010
वन्दे मातरम्
शस्य-श्यामला
मलयजशीतला
मातृभूमि हे
तेरे सपूत
तेरे हित ही
रहें समर्पित
तन-मन
ये क्षणभंगुर
जीवन
वार सकें
न भूलें
बलिदान रीति
रहे चिरंतन
राष्ट्रप्रीति
चाहे जैसा भी
रण हो
और,
समर्पण का क्षण हो
प्रथम
मेरी ही
प्रस्तुति हो
तुझपर
जीवन
आहुति हो
हर जन गाए
हर मन गाए
ऐसा कोई तंत्र बने
व्यक्ति-व्यक्ति
गणतंत्र बने
साकार स्वप्न
बस हो मेरा
अक्षत हो
वैभव तेरा।।
मलयजशीतला
मातृभूमि हे
तेरे सपूत
तेरे हित ही
रहें समर्पित
तन-मन
ये क्षणभंगुर
जीवन
वार सकें
न भूलें
बलिदान रीति
रहे चिरंतन
राष्ट्रप्रीति
चाहे जैसा भी
रण हो
और,
समर्पण का क्षण हो
प्रथम
मेरी ही
प्रस्तुति हो
तुझपर
जीवन
आहुति हो
हर जन गाए
हर मन गाए
ऐसा कोई तंत्र बने
व्यक्ति-व्यक्ति
गणतंत्र बने
साकार स्वप्न
बस हो मेरा
अक्षत हो
वैभव तेरा।।
Saturday, January 23, 2010
Thursday, January 21, 2010
मेरे तुम
चरित्रहीन
सुबह सबह मैं करियाने की दुकान पर पहुंचा और दूध का पैकेट खरीदा। छुट्टा न होने के कारण दुकानदार को सौ का नोट देना पड़ा। मन ही मन सोच रहा था कहीं पुराना उधार न निपटाने लगे। मन ही मन राम राम करने लगा। किसी तरह दो मिनट बीते, कि उसने मुझे 140 रुपये निकाल कर पकड़ा दिए और दूध लिफाफे में रखने लगा। हिसाब से तो 10 रुपये दूध के देने के बाद मुझे सिर्फ नब्बे मिलने चाहिए थे। मैं कुछ हैरान हुआ, लेकिन माजरा समझ में आया तो अंदर ही अंदर प्रसन्न भी हुआ। उसने गलती से मुझे 10 के नोटों की गिनती में पचास का नोट पकड़ा दिया था। दो मिनट दुकान पर खड़े रहकर मैंने उससे इधर-उधर की बातें कीं, फिर जब पक्का हो गया कि उसका ध्यान पैसे की तरफ नहीं है, मैं दबे पांव खिसक लिया। घर आकर लंबी सांस ली। मुझे लग रहा था कि मैंने चोरी की है और दुकानदार को पैसे वापस कर देने चाहिए, लेकिन लोभ तुष्ट था। तात्कालिक लाभ चरित्र पर भारी पड़ गया। चाहकर भी मैं पैसे उसे वापस नहीं कर सका। सोचता हूं अच्छा दिखने और अच्छा होने में कितना फर्क है और अच्छा होना इतना मुश्किल क्यों है।
Tuesday, January 19, 2010
क्षणिका-2
सौ दीप जलाकर
सोचा था
धरती का
अंधियार मिटेगा
मावस की
निशिचरी रात का
थोड़ा तो
आकार घटेगा
सोचा था
संध्या के आंगन
कोई
उजास की
किरण जनेंगे
और
जरूरत पड़ी
कहीं तो
हम भी
बाती-दीप
बनेंगे
मिटा
मिटाने को-
अंधियार
धोया स्वप्नों
का अहंकार
मैंने निथार
कर हृदय
वर्तिका
ज्योतित की
नयनों में
रक्त जमा
वेदना-
पोषित की
किंतु,
अंधेरा
छंट न सका
आकार
निशा का
घट न सका
संभव था कोई
चमत्कार
हो जाता
दीपित
निराकार
किंतु,
मूढ़ हठ
मिट न सका
दीया माटी से
उठ न सका।।
Monday, January 18, 2010
क्षणिका-1
Thursday, January 14, 2010
विवेकानंद को याद कर
सत्य के लिए
प्राण उत्सर्ग चाहिए
जीवट सा संघर्ष
न्याय के लिए जिए जो
सिरजे तो माधुर्य
बाँट दे अमिय
गरल को
स्वयं पिए जो
वो!
विवेक से पूर
चूर आनंद नित्य
चितवन में आश्वस्ति
अभय की दृष्टि
कहा जिसने
देश के भाग्य
नहीं सोने दूंगा
जीवन भर मैं जाग
अहो मेरे भारत!
तुझे सौभाग्य-नक्षत्रों की
शैय्या दूंगा
और, जागा जो..
जिसके सिंहनाद से
टूटी मरण-नींद
चीर तम-घना
मनुज ये धन्य बना
पुनः,
सुने यह देश
विवेकानंद जन्म दे
कोई परमहंस दे
जो जिए
और, मर सके
तेरे ही लिए
चाहिए-
आग-का वही
धधकता-सा गोला
जिसकी जिह्वा से सदा
राष्ट्र-गौरव बोला
एक बार
फिर वही
समर्पित पूत
पूरब-पच्छिम
उत्तर-दक्षिण
मणि-मुक्तक-सा
गूंथ सके
दृढ सूत
नगर-नगर से
ग्राम-ग्राम से
आहुति इच्छित
फिर कृष्ण-राम से
दे-दे वैभव
इस धरती को
स्वत्व मिटाकर
दांव लगाकर
खेल सके जो
प्राण लुटाकर
मरे मनुज को
जिला सके
गोरे-काले को
मिला सके
पुत्र नहीं
पाषाण जने
जो हन्ता हो
हर वक्र-दृष्टि का
सृजन करे जो
नयी सृष्टि का
माएं
ऐसा वरदान बने
और, यदि
ऐसा संभव हो न सके
पृथ्वी फूलों से
भर न सके
तो,
महाशोक के
दावानल की
इस भंगुर
संसृति हलचल की
आज प्रभो!
संध्या कर दे
ये नपुंसकों की
प्रसव-भूमि
बंध्या कर दे।
Wednesday, January 6, 2010
अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा...
समाचार पत्रों की सुर्खियों में तैर रहे तीन प्रकरण वक्त के माथे पर कलंक का गहरा दाग बनकर रह गए हैं। एक-दूसरे के समानांतर सफर कर रहे ये घटनाक्रम जाने कितने सुलगते सवाल छोड़ते जा रहे हैं। सवाल आधी-आबादी का है, इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहला प्रकरण है रुचिका से छेड़छाड़ और उसकी आत्महत्या का। दूसरा, पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों से कथित यौनाचार का और तीसरा ‘आश्रय' में मानसिक रूप से विकलांग युवती के साथ बलात्कार का। तीन में से दो, हाईप्रोफाइल मामले हैं। इनमें पुलिस के उच्चपदस्थ अधिकारियों की संलिप्तता है। अधिकारी भी वे, जिन्हें राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त है। स्वयं वजीर-ए-आला जिन्हें बचाना चाहते हों, उनका बाल कोई बांका कर भी कैसे लेगा? रुचिका से छेड़छाड़ के आरोपी और अंतत: उसकी आत्महत्या के जिम्मेदार पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर का सीबीआई कोर्ट से ‘मुस्कुराते हुएज् निकल आना इस बात का गवाह है कि उसने अपने रसूख का ‘पूर्ण सदुपयोग' किया। न्याय के लिए 19 वर्ष के लंबे संघर्ष में एक परिवार ने अपने आप को टूटते-बिखरते और मिटते देखा है। सुभाष गिरहोत्रा की उमर बेटी के दर्द में पिहुकते निकल गई। प्रशासनिक सेवा में आने का सपना देख रहे रुचिका के भाई आशु गिरहोत्रा की आंखें पथरा गईं। खौफ का आलम यह है कि तमाम सुरक्षा दावों और प्रयासों के बावजूद गिरहोत्रा परिवार अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। रुचिका की भाभी कविता के शब्दों में, ‘मेरी छोटी-सी बेटी है। उसे स्कूल भेजने से कतराती हूं। भले ही राठौर को सजा हो गई है, किंतु उसकी पहुंच ऊपर तक है। मैं डरती हूं।ज् लंबे अरसे तक चले संघर्ष के बाद एक परिवार, जिसकी आने वाली नस्ल में भी खौफ ही खौफ है, उसे कैसे उबारा जा सकेगा, यह एक यक्षप्रश्न है। एेसा न्याय किस काम का, जो आदमीयत की सुरक्षा के लिए संकट बन जाए? भले ही केस की फाइल री-ओपन हो चुकी है, लेकिन क्या पीड़ितों को समुचित न्याय मिल सकेगा?दूसरा मामला पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों के यौनशोषण का है। यहां भी आरोपी उच्चपदस्थ हैं और रौब-रुतबे वाले हैं। इसका सबूत भी मिल चुका है। आरोपियों के खिलाफ गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट और आनन-फानन में उनको दी गई क्लीनचिट ने अफसरशाही और राजनीति के सरोकारों की मजबूत मिसाल कायम की है। रुचिका प्रकरण की ही तर्ज पर यहां भी आरोपित अफसरान बौखलाए घूम रहे हैं और मुद्दे को उठाने वालों के खिलाफ केस पर केस किए जा रहे हैं। समाचार प्रकाशित करने वाले पत्र को नेस्तनाबूंद करने की कोशिश की जा रही है। राजनीति का बल मिला हुआ है, सो न्यायतंत्र भी खामोश बैठा है। कुछ लोग जहां मसले को सिर्फ चर्चा तक ही सीमित देख रहे हैं, तो कुछ इसे राज एवं न्यायतंत्र का अंधापन मानकर आवाज भी उठा रहे हैं, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही है। तीसरा प्रकरण ‘आश्रय' में मानसिक विकलांग युवती से बलात्कार का है। यह मामला पूरी तरह से आम आदमी का है और दोष सिद्ध हो चुका है। आरोपी छोटूराम ने अपराध स्वीकार कर लिया है। न उसके पास राजनीतिक रसूख है, न पानी की तरह से बहाया जा सके, इतना पैसा। उसकी स्वीकारोक्ति को उसकी मजबूरी कहा जाए, या पश्चाताप? एक कदम आगे जाकर उसकी पत्नी चमेली ने बलात्कार पीड़िता से जन्मी ‘कुदरत को अपनाने के लिए भी गुहार लगाई है। उसकी वजह भी है। छोटू को सजा तय है और उसके बाद परिवार का कोई खेवनहारा नहीं है। आगे दो मासूम बच्चियां हैं, जिनका कोई कसूर नहीं है। बाप के पाप का प्रायश्चित वो करें, यह न्यायोचित नहीं है। तीनों प्रकरण सं™ोय हैं। किसी को सजा मिले या नहीं, उनके दोष कम नहीं हो जाते। मुद्दे की बात यह है कि तीनों मामलों में पीड़ित ‘आधी आबादी' है। जिनकी आबरू के चीथड़े उड़े हैं, वो इस देश की हैं। इन तीनों कांडों से समाज कलंकित हुआ है। चाहे प्रशासन को दोष दें, चाहे न्यायतंत्र को, पीड़ितों का दर्द कम नहीं किया जा सकता। हां, एक एेसा तंत्र विकसित जरूर किया जा सकता है, जो भविष्य में एेसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सके। राठौर जसों को पैदा होने से नहीं रोका जा सकता, न छोटूराम जसों को पनपने से। हां, इनको कठोरतम सजा देकर एक सबक जरूर कायम किया जा सकता है। एेसे लोगों के मुंह पर थूककर, इनका सामाजिक बहिष्कार करके। यह ज्यादा बुरा तो नहीं है.। जब नीति-न्याय की समस्त संभावनाएं क्षीण पड़ जाएं, तो समाज को स्वयं कुछ कठोर फैसले करने चाहिएं। तीनों मामलों में जिनपर आरोप लगा, अथवा दोष सिद्ध हुए, उनमें एक पूर्व डीजीपी, दो वर्तमान डीजीपी और तीसरा एक अदना सा सिक्योरिटी गार्ड है। पद और प्रतिष्ठा में भले फर्क रहा हो, परंतु तीनों के दायित्व बेहद महत्वपूर्ण थे। सभी पर सामाजिक सुरक्षा के गंभीर दायित्व थे। कहते हुए शर्म आती है कि इज्जत के रखवाले ही उसे मटियामेट कर गए। काया और रुतबे का जो अंतर दिख रहा है, उसके भीतर की पापिन आत्मा एक ही है। सवाल एक है.हर शाख पे.बैठे हैं, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा?
Friday, January 1, 2010
उद्बोधन
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