Wednesday, January 6, 2010

अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा...

समाचार पत्रों की सुर्खियों में तैर रहे तीन प्रकरण वक्त के माथे पर कलंक का गहरा दाग बनकर रह गए हैं। एक-दूसरे के समानांतर सफर कर रहे ये घटनाक्रम जाने कितने सुलगते सवाल छोड़ते जा रहे हैं। सवाल आधी-आबादी का है, इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहला प्रकरण है रुचिका से छेड़छाड़ और उसकी आत्महत्या का। दूसरा, पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों से कथित यौनाचार का और तीसरा ‘आश्रय' में मानसिक रूप से विकलांग युवती के साथ बलात्कार का। तीन में से दो, हाईप्रोफाइल मामले हैं। इनमें पुलिस के उच्चपदस्थ अधिकारियों की संलिप्तता है। अधिकारी भी वे, जिन्हें राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त है। स्वयं वजीर-ए-आला जिन्हें बचाना चाहते हों, उनका बाल कोई बांका कर भी कैसे लेगा? रुचिका से छेड़छाड़ के आरोपी और अंतत: उसकी आत्महत्या के जिम्मेदार पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर का सीबीआई कोर्ट से ‘मुस्कुराते हुएज् निकल आना इस बात का गवाह है कि उसने अपने रसूख का ‘पूर्ण सदुपयोग' किया। न्याय के लिए 19 वर्ष के लंबे संघर्ष में एक परिवार ने अपने आप को टूटते-बिखरते और मिटते देखा है। सुभाष गिरहोत्रा की उमर बेटी के दर्द में पिहुकते निकल गई। प्रशासनिक सेवा में आने का सपना देख रहे रुचिका के भाई आशु गिरहोत्रा की आंखें पथरा गईं। खौफ का आलम यह है कि तमाम सुरक्षा दावों और प्रयासों के बावजूद गिरहोत्रा परिवार अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। रुचिका की भाभी कविता के शब्दों में, ‘मेरी छोटी-सी बेटी है। उसे स्कूल भेजने से कतराती हूं। भले ही राठौर को सजा हो गई है, किंतु उसकी पहुंच ऊपर तक है। मैं डरती हूं।ज् लंबे अरसे तक चले संघर्ष के बाद एक परिवार, जिसकी आने वाली नस्ल में भी खौफ ही खौफ है, उसे कैसे उबारा जा सकेगा, यह एक यक्षप्रश्न है। एेसा न्याय किस काम का, जो आदमीयत की सुरक्षा के लिए संकट बन जाए? भले ही केस की फाइल री-ओपन हो चुकी है, लेकिन क्या पीड़ितों को समुचित न्याय मिल सकेगा?दूसरा मामला पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों के यौनशोषण का है। यहां भी आरोपी उच्चपदस्थ हैं और रौब-रुतबे वाले हैं। इसका सबूत भी मिल चुका है। आरोपियों के खिलाफ गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट और आनन-फानन में उनको दी गई क्लीनचिट ने अफसरशाही और राजनीति के सरोकारों की मजबूत मिसाल कायम की है। रुचिका प्रकरण की ही तर्ज पर यहां भी आरोपित अफसरान बौखलाए घूम रहे हैं और मुद्दे को उठाने वालों के खिलाफ केस पर केस किए जा रहे हैं। समाचार प्रकाशित करने वाले पत्र को नेस्तनाबूंद करने की कोशिश की जा रही है। राजनीति का बल मिला हुआ है, सो न्यायतंत्र भी खामोश बैठा है। कुछ लोग जहां मसले को सिर्फ चर्चा तक ही सीमित देख रहे हैं, तो कुछ इसे राज एवं न्यायतंत्र का अंधापन मानकर आवाज भी उठा रहे हैं, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही है। तीसरा प्रकरण ‘आश्रय' में मानसिक विकलांग युवती से बलात्कार का है। यह मामला पूरी तरह से आम आदमी का है और दोष सिद्ध हो चुका है। आरोपी छोटूराम ने अपराध स्वीकार कर लिया है। न उसके पास राजनीतिक रसूख है, न पानी की तरह से बहाया जा सके, इतना पैसा। उसकी स्वीकारोक्ति को उसकी मजबूरी कहा जाए, या पश्चाताप? एक कदम आगे जाकर उसकी पत्नी चमेली ने बलात्कार पीड़िता से जन्मी ‘कुदरत को अपनाने के लिए भी गुहार लगाई है। उसकी वजह भी है। छोटू को सजा तय है और उसके बाद परिवार का कोई खेवनहारा नहीं है। आगे दो मासूम बच्चियां हैं, जिनका कोई कसूर नहीं है। बाप के पाप का प्रायश्चित वो करें, यह न्यायोचित नहीं है। तीनों प्रकरण सं™ोय हैं। किसी को सजा मिले या नहीं, उनके दोष कम नहीं हो जाते। मुद्दे की बात यह है कि तीनों मामलों में पीड़ित ‘आधी आबादी' है। जिनकी आबरू के चीथड़े उड़े हैं, वो इस देश की हैं। इन तीनों कांडों से समाज कलंकित हुआ है। चाहे प्रशासन को दोष दें, चाहे न्यायतंत्र को, पीड़ितों का दर्द कम नहीं किया जा सकता। हां, एक एेसा तंत्र विकसित जरूर किया जा सकता है, जो भविष्य में एेसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सके। राठौर जसों को पैदा होने से नहीं रोका जा सकता, न छोटूराम जसों को पनपने से। हां, इनको कठोरतम सजा देकर एक सबक जरूर कायम किया जा सकता है। एेसे लोगों के मुंह पर थूककर, इनका सामाजिक बहिष्कार करके। यह ज्यादा बुरा तो नहीं है.। जब नीति-न्याय की समस्त संभावनाएं क्षीण पड़ जाएं, तो समाज को स्वयं कुछ कठोर फैसले करने चाहिएं। तीनों मामलों में जिनपर आरोप लगा, अथवा दोष सिद्ध हुए, उनमें एक पूर्व डीजीपी, दो वर्तमान डीजीपी और तीसरा एक अदना सा सिक्योरिटी गार्ड है। पद और प्रतिष्ठा में भले फर्क रहा हो, परंतु तीनों के दायित्व बेहद महत्वपूर्ण थे। सभी पर सामाजिक सुरक्षा के गंभीर दायित्व थे। कहते हुए शर्म आती है कि इज्जत के रखवाले ही उसे मटियामेट कर गए। काया और रुतबे का जो अंतर दिख रहा है, उसके भीतर की पापिन आत्मा एक ही है। सवाल एक है.हर शाख पे.बैठे हैं, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा?

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