Thursday, January 21, 2010

चरित्रहीन


सुबह सबह मैं करियाने की दुकान पर पहुंचा और दूध का पैकेट खरीदा। छुट्टा न होने के कारण दुकानदार को सौ का नोट देना पड़ा। मन ही मन सोच रहा था कहीं पुराना उधार न निपटाने लगे। मन ही मन राम राम करने लगा। किसी तरह दो मिनट बीते, कि उसने मुझे 140 रुपये निकाल कर पकड़ा दिए और दूध लिफाफे में रखने लगा। हिसाब से तो 10 रुपये दूध के देने के बाद मुझे सिर्फ नब्बे मिलने चाहिए थे। मैं कुछ हैरान हुआ, लेकिन माजरा समझ में आया तो अंदर ही अंदर प्रसन्न भी हुआ। उसने गलती से मुझे 10 के नोटों की गिनती में पचास का नोट पकड़ा दिया था। दो मिनट दुकान पर खड़े रहकर मैंने उससे इधर-उधर की बातें कीं, फिर जब पक्का हो गया कि उसका ध्यान पैसे की तरफ नहीं है, मैं दबे पांव खिसक लिया। घर आकर लंबी सांस ली। मुझे लग रहा था कि मैंने चोरी की है और दुकानदार को पैसे वापस कर देने चाहिए, लेकिन लोभ तुष्ट था। तात्कालिक लाभ चरित्र पर भारी पड़ गया। चाहकर भी मैं पैसे उसे वापस नहीं कर सका। सोचता हूं अच्छा दिखने और अच्छा होने में कितना फर्क है और अच्छा होना इतना मुश्किल क्यों है।

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