Friday, December 30, 2011

​पूर्वजन्म, सच, मसीह, ​रावण

आज हरिद्वार से लौटा हूं...वहां "​पूर्वजन्म" के एक मित्र से भेंट हुई। ठीक एक जन्म पहले हम एक-दूसरे को जानते रहे होंगे। ध्यान करते समय गहरी अनुभूति हुई। इस बार "सुरसरि" का वेग तीव्र था। स्नान करने उतरा तो लगा जम गया हूं। मुश्किल से पांच डुबकियां लगाईं। रामकृष्ण परमहंस होते तो कहते-एक भी डुबकी ढंग की न लगी। लग जाती तो बाहर क्योंकर दिखते?​
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जो कहूंगा, सच कहूंगा। सच नहीं कह सका तो भी चुप नहीं रहूंगा। क्योंकि...यदि मैं सच न हो सका तो और कौन हो सकेगा? ​
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जो मेरी प्रशंसा करते हैं और जो मेरी निंदा करते हैं-वे उस परमात्मा के बनाए कभी नहीं हो सकते जो प्रशंसा और निंदा, सुख और दुःख, मान और अपमान जैसे द्वंद्वों के पार है। उनका सिरजनहार कोई और ही है। जो किसी और का है, वो बस दया का पात्र है। इस संसार में प्रभु की संतानों को छोड़ शेष सब दीन हैं। ​
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​ईसा मसीह कहते हैं-हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं। मैं कहता हूं-हे प्रभु, इन्हें तब भी क्षमा करना जब ये जान रहे हों कि ये क्या कर रहे हैं? ​
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​रावण मूर्ख है। वो नकली संत बनता है...घड़ीभर के लिए। भिक्षा मांगता है सीता से। सीता एक झूठे ऋषि के लिए भी सारी सीमा-रेखाएं पार कर जाती हैं। कितनी उदारता है..। एक झूठे संत के संग का फलन यह है कि उसे बरसों कठिन यंत्रणा में राक्षसों के बीच बिताना पड़ता है। और रावण, इतना मूढ़...समझ ही नहीं पाता कि यदि क्षणभर का झूठा साधुपना सीताजैसी दिव्यशक्ति की निकटता बरसों तक दे सकता है तो सच्चा संत बन जाने पर क्या होगा?​​
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Sunday, November 27, 2011

क्षण-क्षण-१

1-कंपन का अर्थ है झूठा व्यक्तित्व। शारीरिक-मानसिक-नैतिक...और सबसे बढ़कर आध्यात्मिक रूप से असहाय। आत्मा से क्षीण जीव हरक्षण कांपता है। आत्मा का अर्थ है-सत्य के सर्वाधिक निकट अस्तित्व।​
​2-सुना है जो डर गया वो मर गया। लेकिन जो मरने के बाद भी डरता रहे, उसका क्या। ​

Wednesday, November 16, 2011

क्षण-क्षण

जो तुम्हारा सच है और जो मेरा सच है, दोनों में ठीक उतना ही अंतर है जितना असली एवं नकली सोने में। मेरा सत्य स्वयं से दीप्त है और तुम्हारा सत्य तुम्हारी भ्रष्ट आत्मा पर चढ़ाया गया चमकीला मुलम्माभर।

वे नश्तर चुभो रहे थे...बार-बार...यहां-वहां...पूरी देह में। मैं सहता रहा...देह मेरी थी..वेदना मुझे थी...मैंने नश्तर छीना और कलेजे में उतार लिया। अब मैं वेदना से मुक्त हूं।

जब तुमपर उंगली उठे तो पहले उसकी दिशा देखो, फिर अपनी ओर। उंगली उठती ही जाए तो समझो, कि अब तलवार निकालकर उंगली उठानेवाले का हाथ काट देने का वक्त आ गया है, बशर्त्त तुम सही हो।

Sunday, October 23, 2011

दीपपर्व


हाथ में काठ लिए​
​मन में कुछ गांठ लिए​
​और झूठी ठाठ लिए​
​जीवन भर सोचते रहे​
सिर के बाल नोचते रहे​
​और सबको कोसते रहे​​
​अंधेरा हटाना है​​
​कलंक मिटाना है​
​छछूंदर को डराना है​
​दिख न सका तथ्य यह​
​भंगुर यह, मृत्य यह​
​तमस कहां सत्य यह
अजी, किसको​​ मिटाना है​
​किसको हटाना है​
​और क्यों किसी को डराना है​​
​ये जो हाथ का काठ है​
​मन की जो गांठ है​
​और झूठा जो ठाठ​ है​
​यही असल रोग है​
मृत्यु-मरण योग है​
​​मनुजता का सोग है​
जो करना-कराना है​
वो यह कि गीत एक गाना है​
​और, नन्हा-सा दीपभर जलाना है।।​
​दीपपर्व की मंगलकामनाओं के साथ-​
​आशुतोष

Wednesday, September 14, 2011

क्षणिका

रात को दिन दिनों को रात करें।​
सही-गलत सही, कुछ तो बात करें।​।​
​​कोई कहे-न कहे पर छुपी रहेगी नहीं
​चोट खाए हुए कह देंगे जज्बात हरे।​
अकल जो होती तो आ जाती ​समझ ​​
​आग दामन में लिए कौन मुलाकात करे।।
​​आंख पुरनम, जुबां पे ​खामोशी ​
टूटे हुए हमदम कहां फरियाद करें।
​न कोई उज्र न शिकायत अब है
​चल ऐ दिल, इश्क की शुरुआत करें।।​

Sunday, July 31, 2011

अनमन


​पीर मचलती पार क्षितिज के​
छू लो मेरे मन।​
​हंस लो मेरे मन।।​
​​
​वट की स्नेहभरी छाया हो​
​फिर भी कहां पनपता जीवन?​
​कैसे कह दूं मिल जाएगा​
​तुमको सपनों का उपवन।।​
​​
​यों न लिपट जड़संकुल से​
​झूलो मानस-घन।​
​​
​शून्य ससीमित माना मैने​
​देख तुम्हारी पीड़ा पागल।​​
अंक दग्ध हो गया लहू से​
​धधक उठा ​मेरा उर घायल।।​
​​
​घूम-घूम कोने-अंतरे​
सरसो प्रेम-सुमन।।
​​
​​पीर मचलती पार क्षितिज के​
छू लो मेरे मन।​
​हंस लो मेरे मन।।​
​​

Thursday, March 31, 2011

इदन्नमम


चाहता हूं जब​
​कि, कह दूं​
​खिलखिलाकर तुम हंसो​
​एक बरछी वेदना की​
​घातिनी बन बींध जाती है...​

​​चाहता हूं जब​
​कि, तुम ​
दृढ़व्रती हो कुछ कहो​​
​वज्र-सी बिजुरी​
​हृदय को चीर जाती है...​
​​
​मौन में बैठे ​
​तुम्हें​ जब देखता हूं​​
​श्वास की गहराइयों में
​निर्दयी-सी पीर​
दृगभर नाच जाती है...
​​
​चाहता संवाद मन​
​जब तुम्हारे अश्रुओं से​
​कांपती कोई हवा​
​स्वर-शिखाओं को बुझा​
दीप-उर को तोड़ जाती है...​
​​
​क्या करूं निज नेह का​
​चाहता जो तुम हंसो​​
​अधर से लिपटी​
​विषैली वेदना को पंख दो​...
​​
​क्या करूं वो भावना​
​चाहती तुम मुखर हो​​
मरण-उन्मुख आस्था को​
​निज परस से प्राण दो...
​​
​मानता...हां, मानता हूं​
​मौन सबकुछ बोलता है...​​
​शब्द के सीमांत के​
​भेद सारे खोलता है
​किंतु, मेरे आत्मन!​
​प्रीति मेरे! प्राणघन​!
कैसे कहूं-निस्तब्धता​
​अब बहुत ही दाहती है...​
मौन की विषमय तरलता
आत्मा को मारती है...​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​​

Saturday, February 19, 2011

गुस्ताखी माफ़


आत्मीय जन,​ लंबे समय बाद एक क्षणिका उतरी है। सबको निवेदितl कर रहा हूं। स्वीकार करें-
​पाषाण नहीं, ये हृदयकमल है​
​यहां हलाहल वर्जित है।​
​मानसरोवर जिसका मन​
​उसके लिए समर्पित है।।​​