Tuesday, January 10, 2012

ख्याल

एकबार ख्याल आया-धर्म इस संसार में कितना निंदनीय हो गया है, फिर इस पथ क्यों चलना चाहिए। फिर मैंने संगति बदल दी। अब सोचता हूं कि निंदा करने वाले हैं ही कितने और हमें धर्मपथ पर ही क्यों नहीं चलना चाहिए।

कुत्ता हड्डियां चबाता है...सूखी हड्डियां उसी की जिह्वा और जबड़े को काट डालती हैं...अपने ही खून को पीता हुआ वो कितना मगन रहता है? आज का मनुष्य भी अपवाद नहीं रहा। जीवन-रस सूख चुका है, बस ईर्ष्या और पाखंड की सूखी हड्डियां ही उसके जीवन का स्वाद रह गई हैं।

हम उसकी आवाज नहीं सुन रहे। कौन नहीं जान रहा कि जीवन एक-एक दिन मौत की ओर सरक रहा है...कालपुरुष बड़ी निर्दयता से गला घोंटने को तैयार है...चिता बिछी पड़ी है...सिर्फ कुछ श्वासों की देर है...कौन सी श्वास अंतिम होगी, बस इसी का तो इंतजार है हम सबको..

Sunday, January 1, 2012

चल रे साथी

आगत के स्वागत का ये पल​
​विस्मृत कर दे दुःखभरा कल​
​मधु गीतों से झूम उठे मन​
​नयनों में भर सपन नवल​
​​चल रे साथी...नई जगह चल।।​
​​
​बहुत हो चुका रोना-धोना​
​न कुछ पाना न अब खोना​
​धरती से उठकर चल दें​
​बनें शून्य का नीलकमल।।
चल रे साथी...नई जगह चल।। ​
​​
बरस-बरस बस बीत रहा​
​आगत कभी अतीत रहा​
​अब यथार्थ को जीना सीखें​​
​बहुत सह चुके समय का छल।​
​चल रे साथी...नई जगह चल।।