आज हरिद्वार से लौटा हूं...वहां "पूर्वजन्म" के एक मित्र से भेंट हुई। ठीक एक जन्म पहले हम एक-दूसरे को जानते रहे होंगे। ध्यान करते समय गहरी अनुभूति हुई। इस बार "सुरसरि" का वेग तीव्र था। स्नान करने उतरा तो लगा जम गया हूं। मुश्किल से पांच डुबकियां लगाईं। रामकृष्ण परमहंस होते तो कहते-एक भी डुबकी ढंग की न लगी। लग जाती तो बाहर क्योंकर दिखते?
जो कहूंगा, सच कहूंगा। सच नहीं कह सका तो भी चुप नहीं रहूंगा। क्योंकि...यदि मैं सच न हो सका तो और कौन हो सकेगा?
जो मेरी प्रशंसा करते हैं और जो मेरी निंदा करते हैं-वे उस परमात्मा के बनाए कभी नहीं हो सकते जो प्रशंसा और निंदा, सुख और दुःख, मान और अपमान जैसे द्वंद्वों के पार है। उनका सिरजनहार कोई और ही है। जो किसी और का है, वो बस दया का पात्र है। इस संसार में प्रभु की संतानों को छोड़ शेष सब दीन हैं।
ईसा मसीह कहते हैं-हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं। मैं कहता हूं-हे प्रभु, इन्हें तब भी क्षमा करना जब ये जान रहे हों कि ये क्या कर रहे हैं?
रावण मूर्ख है। वो नकली संत बनता है...घड़ीभर के लिए। भिक्षा मांगता है सीता से। सीता एक झूठे ऋषि के लिए भी सारी सीमा-रेखाएं पार कर जाती हैं। कितनी उदारता है..। एक झूठे संत के संग का फलन यह है कि उसे बरसों कठिन यंत्रणा में राक्षसों के बीच बिताना पड़ता है। और रावण, इतना मूढ़...समझ ही नहीं पाता कि यदि क्षणभर का झूठा साधुपना सीताजैसी दिव्यशक्ति की निकटता बरसों तक दे सकता है तो सच्चा संत बन जाने पर क्या होगा?