Sunday, August 26, 2012


बेहयायी का शिखर छूने को अब बेताब है।​ ये हमारी केंद्रसत्ता स्वयं में नायाब है।।​ लब्धियां इनकी गिनाने को नहीं हैं गिनतियां​ ​काली करतूतों से सारा दशक ही आबाद है।।​ ​बर्बाद करने को बहुत कुछ है अभी भी देश में​ ​इसलिए अब भी सदन में कांग्रेस जिंदाबाद है।। ​वो जो कहते हैं कि ये खा गए हैं कोयला​ ​उनको बताओ, ये सभी कालिख की ही औलाद हैं।।​ ​

Saturday, August 25, 2012


अपना देश रवायती है, वो भी आदिकाल से। रवायती बोले तो परंपरावादी। लीक-लीक चलने वाला। यूं तो लीक-लीक चलनेवालों को कायर-कुटिल-कपूत...और भी जाने क्या-क्या कहा गया है, परंतु कड़वा सच तो यह है कि लीक-लीक चल पाना भी बड़ी बात है। सूरतेहाल को देख तो यही कहना उचित होगा कि अब असली शूर-शायर-सपूत तो वो ही है जो लीक पर चल सके। लीक से भटककर चलने वाले तो सब ही हैं, लीक की निंदा-आलोचना करनेवालों की जमात पर जमात है। जिसे देखो बस लीक हिलाने की कवायद में लगा है। लीक न हुई, अंगद का पैर हो गया। ​सबको लगता है कि लीक से हटकर चलेंगे तो ही दिखेंगे, जलवा कुछ और होगा, लोग कहेंगे-शायर-सिंह-सपूत। कुछ लोग तो लीक बनाने में ही लग गए...एकदम नई लकदक लीक। ऐसी कि जो चले उसी के पैर फिसल जाएं-हड्डियों का सूरमा बन जाए। जुनून यह कि बस लीक बन जाए, कीमत चाहे कुछ भी चुकानी पड़े। अव्वल तो कीमत किसी और को ही चुकानी पड़ती है मगर फायदा लीक बनाने वाले का ही होता है। धन का फायदा-जन का फायदा...तन और मन के फायदे तो लगेहाथ चले आते हैं। कभी लीक गांवों से गुजरती थी पगडंडी बनकर...फिर शहर बने तो हाइवे और एक्सप्रेस-वे बनकर गुजरी। लीक क्या गुजरी, अलबत्ता लीक पर चलने वाले गुजरने लगे। शहरों की लीक पर रफ्तार तेज होती है, लिहाजा गुजरना भी तेज होता है। समय का चक्र बदला तो अपन लोग भी थोड़ा-थोड़ा लीक से हटे। जब लीक पर थे, तकलीफ कम थी। जमाना पुराना था और कोई एक्सप्रेस-वे नहीं था। कई बार तो यह होता कि चल पड़े जिधर दो डग मग में, बस उसी ओर लीक बन जाती थी। दरअसल लीक चलने भर से ही बन जाती थी, महत्वाकांक्षाओं की न तो ज्यादा रफ्तार थी न हाथ में दकियानूसी विकास की तलवार। फिर समय बदला। लीक का स्वरूप बदला। अब लीक एक्सप्रेस की रफ्तार पर है। हर कोई अपनी लीक बना रहा है...वो कहां जाती है, किसी को नहीं पता। ज्यादातर की लीक कुछ और नहीं, लीक के उलट दौड़ना भर है। ​असल लीक तो चरित्र की थी, धर्म की थी। मनुजता को शिखर की ओर ले जाने वाली लीक...व्यक्ति-व्यक्ति के चरम उन्नयन की लीक...अंधकार से प्रकाश की ओर ले जानी वाली लीक...माटी को अमृत बनाने वाली लीक। अब तकलीफ बढ़ गई है, क्योंकि लीक छूट गई है...हम धीरे-धीरे नई लीक पर जा रहे हैं...जाने कहां? ​अचंभा यह कि हम अब भी लीक-लीक ही चल रहे हैं-नई हो या पुरानी-क्या फर्क पड़ता है?

Friday, July 27, 2012

तिवारी जी, जीते तुम्हीं हो...

लाइव टेलिकास्ट ने माहौल ऐसा रचा है कि देखे बिना नहीं रहा जाता। चश्मा उतारकर, सिर झुकाकर आंख पर हाथ फेरते एनडी तिवारी, चश्मा चढाए छाती तानकर तीक्ष्ण कटुक्तियों के सहारे सत्यविजय का उद्घोष करती उज्ज्वला शर्मा...। एक के बाद एक दोनों के चेहरों कैमरे पर नचाए जा रहे हैं । उज्ज्वला आज किलक रही हैं-तिवारी ऐसे, तिवारी वैसे। वो कह रही हैं-ये सत्य की जीत है। तनिक कोई पूछे किस सत्य की जीत है। सत्य रह ही कहां गया था इस षड्यंत्रकारी खेल में। क्या वो कोई अलग सत्य है जिसका दंभ उज्ज्वला भर रही हैं। सत्य तो उसी दिन मटियामेट हो गया था जिस दिन श्रीमती उज्ज्वला अपने श्रीमान बीपी शर्मा से बावस्ता होते हुए भी बारास्ता एनडी तिवारी मां बनने के लिए उनके बिस्तर में घुसी थीं। एक सत्य यह था कि वे किसी और की श्रीमती थीं। एक सत्य था कि उनके पति उन्हें मातृसुख दे पाने में अक्षम थे। एक सत्य था कि उनके भीतर वासना-पुत्रकामना बरजोर थी। एक सत्य था कि उन्हें इसके लिए किसी और के संग हमबिस्तर होने से कोई गुरेज न था। प्रेम के पांखड में एक आदमकद व्यक्तित्व से यौनेच्छा शांत करने की आग एक सत्य ही थी। डीएनए का सत्य यदि सत्य है तो यह साफ है कि बाकी सब सत्य भी शिखरसत्य हैं। इन सत्यों को सिद्ध करने के लिए किसी डीएनए परीक्षण की अनिवार्यता नहीं, किसी आयोग की आवश्यकता नहीं, किसी न्यायालय और न्यायमूर्ति की दरकार नहीं। एक डीएनए रिपोर्ट ने यह सब सिद्ध कर दिया है। उज्ज्वला जी, तुम एक सत्य जीतकर सौ सत्य हार गई हो और तिवारी जी एक सत्य हारकर भी बाक सब सत्य जीत गए हैं। अंतिम जीत उन्हीं की रही है।

Monday, July 23, 2012

प्रेम का अमृत

जीवन के घट में​ ​जितना जल आया​ ​मैंने पीया-औरों को पिलाया​ ​तुम पास आए, बैठो​ ​तुम्हें भी तृप्ति मिलेगी​ ​जल नहीं बचा​ ​मैं तो ​तुम्हारे लिए ​
ले आया...

Tuesday, January 10, 2012

ख्याल

एकबार ख्याल आया-धर्म इस संसार में कितना निंदनीय हो गया है, फिर इस पथ क्यों चलना चाहिए। फिर मैंने संगति बदल दी। अब सोचता हूं कि निंदा करने वाले हैं ही कितने और हमें धर्मपथ पर ही क्यों नहीं चलना चाहिए।

कुत्ता हड्डियां चबाता है...सूखी हड्डियां उसी की जिह्वा और जबड़े को काट डालती हैं...अपने ही खून को पीता हुआ वो कितना मगन रहता है? आज का मनुष्य भी अपवाद नहीं रहा। जीवन-रस सूख चुका है, बस ईर्ष्या और पाखंड की सूखी हड्डियां ही उसके जीवन का स्वाद रह गई हैं।

हम उसकी आवाज नहीं सुन रहे। कौन नहीं जान रहा कि जीवन एक-एक दिन मौत की ओर सरक रहा है...कालपुरुष बड़ी निर्दयता से गला घोंटने को तैयार है...चिता बिछी पड़ी है...सिर्फ कुछ श्वासों की देर है...कौन सी श्वास अंतिम होगी, बस इसी का तो इंतजार है हम सबको..

Sunday, January 1, 2012

चल रे साथी

आगत के स्वागत का ये पल​
​विस्मृत कर दे दुःखभरा कल​
​मधु गीतों से झूम उठे मन​
​नयनों में भर सपन नवल​
​​चल रे साथी...नई जगह चल।।​
​​
​बहुत हो चुका रोना-धोना​
​न कुछ पाना न अब खोना​
​धरती से उठकर चल दें​
​बनें शून्य का नीलकमल।।
चल रे साथी...नई जगह चल।। ​
​​
बरस-बरस बस बीत रहा​
​आगत कभी अतीत रहा​
​अब यथार्थ को जीना सीखें​​
​बहुत सह चुके समय का छल।​
​चल रे साथी...नई जगह चल।।