Tuesday, November 30, 2010

नागार्जुन...गाली देकर


ऐसा नहीं है कि काव्य से मन भर गया है, न ही गद्य-लेखन में हाथ आजमाने की मंशा है। कोई धुरंधर लिक्खाड़ नहीं हूं, दूसरे शब्दों में कहें तो इसका दावा नहीं करता हूं। आजकल रोज मन उचट रहा है। रात-रात जागता हूं, दिन-दिन चिंतन करता हूं। चिंता है देश की, समाज की-आत्मघात की ओर बढ़ रही आदमीयत की। घोटालों से परदा उठना शुरू हुआ है, तो मेरे मन का कलुष धुलने लगा है। ज्योतिषी नहीं हूं परंतु आभास था कि सत्ता के पदतले बहुतों की चीख-पुकार दबी है। राजा हो या महाराजा, अब साफ होने लगा है कि प्रजा उनके लिए मात्र एक खिलौना है..खिलौना भी निर्जीव। चाहे जितना तोड़ो-मरोड़ो, कोई आह भी नहीं निकलती। यों तो मैं प्रायः सो जाता था, किंतु एक रात अचानक नागार्जुन आ खड़े हुए। पहले लगा स्वप्न देख रहा हूं, फिर सोचा कि जब सो ही नहीं रहा तो स्वप्न कैसा। देखकर हिम्मत बढ़ी। नागार्जुन बिहार के थे-कविता के जरिए कांटों का हार पहनकर निकलते थे। सौ गालियां मुझे निकालीं और कहा कि तूने पढ़ाई लिखाई काहे के लिए की। मैं बोला-पहले तो पता ही नहीं था, थोड़ा समझ बढ़ी तो लगा कि नौकरी वगैरह के लिए जरूरी है, सो पढ़ लिया। उन्होंने फिर पूछा-नौकरी क्यों की..। मैं बोला-घर-परिवार के लिए। सहसा उन्होंने घूरा और बोले-स्साले, नौकरी और घर-परिवार के लिए तो हर कोई जीता है, तुझमें अलग क्या है। मैं बोला-पता नहीं। बाबा, मेरा दिमाग मत खाओ, जो कहना है साफ-साफ कहो। रात के तीन बज रहे हैं, या तो जाओ या मझे सो जाने दो। वे मेरा सिर सहलाने लगे। फिर उन्होंने कहा-देख बेटा, तू कविता लिखता है। अच्छा लगता है। बस एक काम कर। कुछ दिनों के लिए मुझे अपने भीतर पनाह दे दे। मैंने कहा-क्यों? वे बोले-इन स्साले राजनीतिज्ञों को कुछ गाली निकालनी है। मरते समय दिल में कुछ कसक रह गई थी, सो अब तू पूरा कर लेने दे। मैं पहले तो अचकचाया, फिर मुझे लगा कि बाबा सही ही बोलता है। इस राजतंत्र में, राजनीति में बचा ही क्या है। सारा तंत्र सड़ा-गला है। आमजन इसके बोझ तले दबा मरा जा रहा है। इससे बचा कैसे जा सकता है? जाहिर है कि इसकी जड़ खोदनी होगी, इसे तबाह करना होगा। इस देश को एक बार पूरा का पूरा झाड़ना होगा। जन को कोसना होगा, धन को कोसना होगा। राजनीति को हटाना होगा, राजनेताओं को हटाना होगा। इन्हें हटाया एक ही तरीके से जा सकता है-गाली देकर। सर्वोत्तम उपाय है गाली। इन्हें ​हर कोई गरियाए, पानी पी-पीकर कोसे। आमदिन हों या चुनाव के-इनको इनके काले चिट्ठे दिखाओ। हर जन के मुंह पर स्पेक्ट्रम लग जाए ताकि एक-एक गाली अनेक रंगों से होकर आए। द्वार-द्वार पर गाली होगे-जिह्वा-जिह्वा पर आलोचना के विषस्वर हों। जो काव्य में दे सके, काव्य में दे, गद्य की विधा हो तो गद्य में-बस गाली दे। कुछ ही दिन..और आप बहुत कुछ बदलता महसूस करेंगे। और, अगर यह गाली देना शुरू न हुआ तो जल्द ही सबकुछ मरता हुआ देखेंगे। राजनीति पतन की पराकाष्टा पर पहुंच चुकी है, जन मरण के कगार पर। जागने का क्षण आज है, अभी ही। मैंने नागार्जुन को अपनी काया में पनाह दे दी है, अब बारी आपकी है।
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Wednesday, November 24, 2010

विद्रोह


(​आत्मीय स्वजन, ​
बहुत दिनों से व्यथित था। समझ नहीं पा रहा था क्या करूं।देश की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। गहरा प्रतिकार उठा है। सोचता हूं चंद लोग भी साथ चलें तो कुछ बदल सकता है। यह कविता एक गाली है। अच्छा बुरा नहीं जानता-नहीं जानना चाहता। अगर राष्ट्र को बचाना है-समाज एवं धर्म को बचाना है तो कुछ करना होगा। चार रौद्र कविताएं हैं। पहली प्रकाशित कर रहा हूं। आप साथ रहे तो आगे बढ़ूंगा अन्यता अकेला चलूंगा।
क्या कहते हो।​​)

आज बहुत मन खिन्न है।
दुनिया-दीन से भिन्न है।।
रोम-रोम में गाली है।
घृणा कंठ में पाली है।।
अतिरेक कहीं हो जाए न।
उदिध विकल हो जाए न।।
डर है सुनामी आने का।
लाशों के बिछ जाने का।।
नगर-नगर चौपट होंगे।
हर ओर बसे मरघट होंगे।।
बस चीख-पुकारे गूंजेगी।
और, दिशाएं सोचेंगी।
क्यों सागर असमय उछला।
किस अपराध का ये बदला।।
उत्तर किसी से दे होगा।
मूक अश्रु पीना होगा।।
यदि विप्लव से बचना है।
शंखनाद यह सुनना है।।
कहता हूं, कान खुले रखना।
और, सत्य पर दृढ़ रहना।
हठधर्म नहीं सद्धर्म जिएगा।
राम-कृ ष्ण का कर्म जिएगा।।
असिधार अहिंसा तोलेगी।
शोणितधारा पथ खोलेगी।।
भालनोक पर सिर उछलेगा।
शव-शव शिव-शिव-हरि बोलेगा।
वीयर्हीन क्या जाचेंगे।
कमर्कांड भर बांचेंगे।
पुरुषत्वहीन सब सह लेंगे।
धर्म बिना भी रह लेंगे।।
किंतु स्वधर्मी ना जीएगा।
अमिय त्याग विष पीएगा।
वो सत्ता से जूझेगा।
प्राण शंख में फूंकेगा।।
नहीं सहेगा दमन कभी भी।
और, सत्य का शमन कभी भी।।
लगे किसी को भले अनर्गल
भले कहे कोई दुर्बाद।
सत्य यही है, आज विधर्मी
छांट रहे हैं "गांधीवाद।।"
निरपेक्ष हुआ बस एक धर्म है।
तुष्टिकरण ही महत्कर्म है।।
राम मरे, मर जाए सीता
कृष्ण जरें, जरि जाए गीता।।
बाबर यहां दामाद है।
राम कथानकवाद है।।
गौरी-गजनी-चंगेज भले।
लूटे-खाए गए चले।।
आज वही आदर्श हैं।
मानव के उत्कर्ष हैं।।
राम झूठ रामायण गल्प।
कृष्ण शास्त्रछल का संकल्प।।
ऋषि परम्परा थोथी है।
महज कल्पना-पोथी है।।
रामसेतु परिहास है।
कल्पित है, बकवास है।।
सच कागज के नोट हैं।
" मुस्लिम के वोट हैं।।
हिंदू आतंकी-उन्मत्त।
विश्वविदित हिंसक-पथभ्रष्ट।।
धर्म गया, ईमान गया।
पुण्य-पाप संधान गया।
शंख बजाना पाप है।
मिला नया अभिशाप है।।
मंदिर पर अधिकार नहीं।
सामाजिक स्वीकार नहीं।।
बेटी-बहू बलत्कृत है।
जिह्वा भू पर लुंठित है।।
चीख निकल पाती है।
पाषाण हो चुकी छाती है।।
राजनीति का मकड़ा है।
बुरी तरह से जकड़ा है।।
पुंसत्वहीन सब सत्ता में।
यूपी-दिल्ली-कलकत्ता में।।
चला रहे हैं गोरखधंधे।
दल के दल-दलदल गंदे।।
सरदार ठूंठ है निगुरा है।
राजनीति का मोहरा है।।
रानी के इशारे हिलता है।
हिलता है तो मिलता है।।
हिलना-मिलना बंद होगा।
गोरखधंधा मंद होगा।
कलमाड़ी भी, गलमाड़ी भी।
खा गए आंगन भी, बाड़ी भी।
शरद पंवारा चलता है।
देश भूख से मरता है।।
अंबर बाकी, चित्त मर गया।
चिदंबरम का वृत्त मर गया।
भगवा से नाराजी है।
खबर एक ही ताजी है।
पासवान के पास नहीं है।
मथुरा-कासी रास नहीं है।।
माया के परपंच घटते।
सारे दिग्जग शीश पटकते।।
गलियों में-चौबारों में
चौक और चौराहों पे।।
जन-जन की खटिया खड़ी हो गई।
रखैल देश से बड़ी हो गई।
लालू की नथ उतरेगी।
सपा वस्त्र अब क्या पहरेगी।।
कांग्रेस की आंख का पानी।
बूढ़ी वेश्या पर चढ़ी जवानी।।
देश की इज्जत तार-तार है।
मस्ती में वेश्या बजार है।।
विवसन होती बहू-बेटियां।
फेंक रही भाजपा गोटियां।।
देखो कैसी लूट मची है।
बस, टांगों में आंख फं सी है।।
मुफ्ती के नैनाविलास में।
आतंकी पलते प्रवास में।।
हिंदुविरोधी स्तुति में।
राष्ट्रविरोधी प्रस्तुति में।।
सारे जन ही उत्सुक हैं।
मानवाधिकारी प्रस्तुत हैं।।
कुछ इनके कुछ उनके हैं।
कुछ अपने ही मन के हैं।।
नब्बे फीसद अपराधी हैं।
संसद में सब साझी हैं।।
इनके हाथों कौन बचेगा।
देश छलेगा और जलेगा।।
राजनीति पर थूक रहा हूं।
क्रांतिशंख फिर फूंक रहा हूं।।
बुद्धि मरण में माती है।
जिसे व्यवस्था भाती है।।
जो इसमें विद्रूप सने हैं।
माटी के वे लोग बने हैं।।
यह तंत्र समर्थित जिनका है।।
मुर्दा हैं, क्या उनका है।।
और, सहा जाता है।
हृदय फटा ही जाता है।।
कारा कठिन मिटानी है।
मुझको आग लगानी है।।

Saturday, November 13, 2010

मुर्दाघर


कभी-कभी ​
सारा दृश्य​​
​बदल जाता है
​संसार
​मुर्दाघर सा लगता है​
​लोगबाग​
​बस दौड़ती हुई लाशें​
​कभी-कभी ​
लगता है
​यहां कुछ ​
​जिंदा नहीं है​
कुछ मुर्दाखोर हैं​
​और, कुछ-
​चीर-फाड़ करने वाले​​
कृत्रिम रुदन है​
​घुटी हुई चीखें
​सड़े हुए मांस​
​और, उनसे रिसता​
​​लिजलिजापन
इस लिजलिजेपन में​
सहमी हुई-सी ​
​कुछ ​जिंदगियां..
​​मन करता है​
​उन्हें बचा लूं
​पर, ​क्या करूं
​इन मरे हुए लोगों का​
​मुर्दाखोरों का​
​​इन्हें दिलासा दूं​
​सहानुभूति जताऊं​
​व्यवस्था से​
​शिकायत करूं
अथवा, समूचे श्मशान में​
​आग लगा दूं...

Wednesday, November 3, 2010

ह्रदयदीप


हर दीया
माटी का है
बुझ जाएगा​​
तेल चुकेगा
​​बाती भी
जल जाएगी​​
तिमिर घना
घिर आएगा
घात लगेंगे​...
​​​​तन छीजेगा
मन टूटेगा
कठिन बहुत
जीना होगा
विष ही
पीना होगा​?
विष पीकर भी
प्राण धरेंगे
अमरित का
उत्सर्ग करेंगे
दीया टूटे
बाती रूठे
तेल चुके
सब साथी छूटें
किंतु, ​ तम से
हारेंगे
दीप ह्रदय का
बारेंगे
माटी के क्यों
दीप धरेंगे​​
क्षणभंगुर से
प्रीति करेंगे​!​ ​
जब तक मन
चैतन्य भरा है
और, ह्रदय में
प्रेम खरा है
हम ही बाती
दीप बनेंगे
उस चिन्मयकी
ज्योति बनेंगे
तेल नहीं यह रीतेगा
और, प्राण छीजेगा
फिर, शाश्वत
भरमन होगा
दीपोत्सव
हरक्षण होगा।।
(​आप सभी को दीपपर्व की मंगलकामना।)​