Tuesday, January 19, 2010

क्षणिका-2


सौ दीप जलाकर 
सोचा था 
धरती का 
अंधियार मिटेगा
मावस की 
निशिचरी रात का 
थोड़ा तो 
आकार घटेगा
सोचा था
संध्या के आंगन
कोई 
उजास की
किरण जनेंगे
और
जरूरत पड़ी 
कहीं तो
हम भी
बाती-दीप
बनेंगे
मिटा
मिटाने को-
अंधियार
धोया स्वप्नों
का अहंकार
मैंने निथार 
कर हृदय 
वर्तिका 
ज्योतित की
नयनों में 
रक्त जमा
वेदना-
पोषित की
किंतु, 
अंधेरा 
छंट न सका
आकार 
निशा का 
घट न सका
संभव था कोई
चमत्कार
हो जाता 
दीपित 
निराकार
किंतु, 
मूढ़ हठ 
मिट न सका
दीया माटी से 
उठ न सका।।



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