Thursday, January 14, 2010

विवेकानंद को याद कर


सत्य के लिए
प्राण उत्सर्ग चाहिए
जीवट सा संघर्ष
न्याय के लिए जिए जो
सिरजे तो माधुर्य
बाँट दे अमिय
गरल को
स्वयं पिए जो
वो!
विवेक से पूर
चूर आनंद नित्य
चितवन में आश्वस्ति
अभय की दृष्टि
कहा जिसने
देश के भाग्य
नहीं सोने दूंगा
जीवन भर मैं जाग
अहो मेरे भारत!
तुझे सौभाग्य-नक्षत्रों की
शैय्या दूंगा
और, जागा जो..
जिसके सिंहनाद से
टूटी मरण-नींद
चीर तम-घना
मनुज ये धन्य बना
पुनः,
सुने यह देश
विवेकानंद जन्म दे
कोई परमहंस दे
जो जिए
और, मर सके
तेरे ही लिए
चाहिए-
आग-का वही
धधकता-सा गोला
जिसकी जिह्वा से सदा
राष्ट्र-गौरव बोला
एक बार
फिर वही
समर्पित पूत
पूरब-पच्छिम
उत्तर-दक्षिण
मणि-मुक्तक-सा
गूंथ सके
दृढ सूत
नगर-नगर से
ग्राम-ग्राम से
आहुति इच्छित
फिर कृष्ण-राम से
दे-दे वैभव
इस धरती को
स्वत्व मिटाकर
दांव लगाकर
खेल सके जो
प्राण लुटाकर
मरे मनुज को
जिला सके
गोरे-काले को
मिला सके
पुत्र नहीं
पाषाण जने
जो हन्ता हो
हर वक्र-दृष्टि का
सृजन करे जो
नयी सृष्टि का
माएं
ऐसा वरदान बने
और, यदि
ऐसा संभव हो न सके
पृथ्वी फूलों से
भर न सके
तो,
महाशोक के
दावानल की
इस भंगुर
संसृति हलचल की
आज प्रभो!
संध्या कर दे
ये नपुंसकों की
प्रसव-भूमि
बंध्या कर दे।

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