Thursday, January 28, 2010

क्षणिका-6

कभी धरा पर, कभी गगन में
कभी क्षितिज के पार थे।
छूम-छनन गाता था मन
वो किस वीणा के तार थे।।
माटी प्यारी लगती थी
जेठ-पूस ना भेद था।
अहो, पुनः वो दिन फिरि आते
जब जीवन निर्वेद था।।
काश लौट चलते उस जीवन
माटी-माटी राम निरखते।
थकते-गिरते और भटकते
आखिर, मां की गोद लिपटते।
कितना अच्छा होता हम-तुम
फिर मानुस बन जाते।
ढुलक कपोलों पर गिरते
आंसू मोती बन जाते।।

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