Friday, January 29, 2010

क्षणिका-9


जिंदा देह में 
दहकती सलाख
खुभने पर
किसी का रो पड़ना
उसकी कमजोरी नहीं
क्रूरता के विरुद्ध
आंसुओं का 
विद्रोह है..
घात को
सह जाना
मजबूरी है
उस सहने के लिए
नयनों का 
छलक जाना जरूरी है
देह का घाव 
देर-अबेर
भर जाता है
और..
आंसुओं का मारा
मर जाता है।।

2 comments:

Figment of Imagination said...

आपकी रचनाये बहुत सुन्दर हैं.

Unknown said...

its really a heart touching poem