Saturday, December 4, 2010

स्पेक्ट्रम घोटाला


जागो मेरे देश​
​बहुत ही कठिन घड़ी है।​
​हर ओर राडिया-सी​
​सुरसा मुंहखोल खड़ी है।​।​​
​राजाओं के जाने कितने​
​छल उघड़ेंगे।​
​बरखाओं के पट से जब​
​कंचुकि खिसकेंगे।।​
​वीर तुम्हारे जाने ​कितने ​
​अभी पड़े हैं।​
​सतरंगी घोटालों में ​
​आकंठ गड़े हैं।।​
​पूंजीपतियों की आस्तीन​
में ही नाग पले।
​शनैः-शनैः टाटा-अंबानी ​
​सबके खेल खुले।।​
​क्षण में लाख-करोड़ों के​
​मसविदे तयार हुए।​
​किसने देखा कर्जतले​​
​कितने तन छार हुए।​।
सेंसेक्स की संख्या पर​
​​​खूब उछलता था।​
​कंगाल राष्ट्र बस दावों में​
​आगे बढ़ता था।​।
​राजनीति के हाथों में​
​आकर निचुड़ गए।​
​पेट गरीबों के
भूख से ​
सिकुड़ गए।।​
​सत्ता मूक-बधिर है​​​
​महिषी अंधी है।​
​दुःशासन हंस रहा​
​द्रौपदी नंगी है।।​
जुए में सब​ फंसे​
​भेद कौन खोलेगा।
​​रार ठनेगी, भीष्म ​
​अगर बोलेगा।​।
​सोचा था, कुछ न्याय​
पालिका तोलेगी।​
​और, जरूरत पड़ी​
​मूक जनता बोलेगी।।​
​भ्रष्टतंत्र के धुरविरोध में​
​लोग चलेंगे।​
​पाषाण हो चुके देव​
​तनिक तो पिघलेंगे।।​
​मुट्ठियां भिंचेंगी​
​​उर में भूचाल उठेगा।​
​​​जिस्मों पर तारी​
कायरता का जाल कटेगा।।​
​देख रहा हूं, किंतु​
यहां सब उलटा है।​
​हर शख्स मौज में​
​और, व्यवस्था जिंदा है।।​
लगता है उम्मीदें ​
सब बेमानी हैं।​
​लहू नहीं, ​​अब जिस्म​-​
​जिस्म में​ पानी है।।​​

10 comments:

ni:shabd said...

adbhut...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

समसामयिक अच्छी पोस्ट

अनुपमा पाठक said...

puri vyavastha ko piro dala hai rachna mein!
sundar prastuti!!!

M VERMA said...

लहू नहीं, ​​अब जिस्म​-​
​जिस्म में​ पानी है।।​​
कटु यथार्थ

केवल राम said...

नमस्कार
पूरी कविता यथार्थ के धरातल पर वर्तमान व्यवस्था की पोल खोलती है ....शुभकामनायें

nagrik said...

bahut hi achachhi rachana hai dost

रचना दीक्षित said...

पोल खोलती अच्छी पोस्ट

मनोज द्विवेदी said...

APKI RACHANA BEHATARIN HAI..DELHI SE PRAKASHIT 'METRO UJALA' ME VYANG-VISHESHANK ISSUE KE LIYE APKI EK VYANG RACHANA YA VYANG KAVITA KA SAHYOG MILE TO HUM APKE ABHARI HONGE...
Plz CONTACT- 09899413456
samdariya.manoj@gmail.com
Manoj Dwivedi
Sr. Sub-editor
(Metro Ujala)

संजय भास्‍कर said...

sundar prastuti!!!

Rakesh Kumar said...

क्या कमाल की अभिव्यक्ति है आपकी .आपके हृदय की टीस गूंज रही है आपकी रचना में .विषादग्रस्त हो जाता है मन समाज में बढते हुए भ्रष्टाचार को देख कर.लेकिन फिर आशा जगती है कि यही विषाद एक दिन विषाद-योग भी अवश्य बनेगा.और फिर गीता के ज्ञान का प्रादर्भाव
होगा .बहुत बहुत आभार इतनी खूबसूरत प्रस्तुति के लिए .