Friday, January 29, 2010

गीत-1

मत रो यूं, ऐ प्राण विकल
तुझको अभी संभलना होगा।
पथ जितना है, चलना होगा।।
मान दुःख-रजनी आज यहां
पीड़ा-पराग-मधु जाल यहां
माया के इस हरसिंगार से 
तुझको साफ निकलना होगा।।
भंगुर है हर शूल पंथ का
भ्रामक है हर फूल अंक का
निद्रा की इस घाटी से
आंखे खोल गुजरना होगा।।
तम और सघन होता जाएगा
हर स्वप्न हवन होता जाएगा
चीर चदरिया कठिन मोह की
तुझको स्वयं संवरना होगा।।
शिखर सामने नत होने को
तेरे पास भी क्या खोने को
जन्म-मरण को लगा दांव पर
तुझे लक्ष्य-शर करना होगा।।



1 comment:

Nishant said...

बहुत ख़ूब बंधू ... आपकी रचनाओं में कहीं कहीं गोपाल दस नीरज जी की महक आती है...