मुर्दाघर
कभी-कभी सारा दृश्य बदल जाता है संसार मुर्दाघर सा लगता है लोगबाग बस दौड़ती हुई लाशें कभी-कभी लगता है यहां कुछ जिंदा नहीं है कुछ मुर्दाखोर हैं और, कुछ- चीर-फाड़ करने वाले कृत्रिम रुदन है घुटी हुई चीखें सड़े हुए मांस और, उनसे रिसता लिजलिजापन इस लिजलिजेपन में सहमी हुई-सी कुछ जिंदगियां.. मन करता है उन्हें बचा लूं पर, क्या करूं इन मरे हुए लोगों का मुर्दाखोरों काइन्हें दिलासा दूं सहानुभूति जताऊं व्यवस्था से शिकायत करूं अथवा, समूचे श्मशान में आग लगा दूं...
11 comments:
बहुत आक्रोश है।
इन्हें दिलासा दूं
सहानुभूति जताऊं
व्यवस्था से
शिकायत करूं
अथवा, समूचे श्मशान में
आग लगा दूं...
व्यवस्था का लिजलिलापन साफ़ झलक रहा है ...
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
व्यवस्था से
शिकायत करूं
अथवा, समूचे श्मशान में
आग लगा दूं...
मन के आक्रोश को अच्छे शब्द दिए हैं आपने.
पर क्या करूं
इन मरे हुए लोगों का
मुर्दाखोरों का
इन्हें दिलासा दूं
सहानुभूति जताऊं
व्यवस्था से
शिकायत करूं
अथवा समूचे श्मशान में
आग लगा दूं
संसार को एक भिन्न दृष्टिकोण से अपलक निहारती हुई कविता।
...शिल्प और भाव दोनों अद्भुत।
अरे वाह...! यहाँ ‘दौड़ती हुई लाशें’ और मेरे ब्लॉग पर ‘चलायमान लाशें’ कितना बड़ा संयोग...!
आपके पास जो वैचारिक ऊष्मा है, उसका प्रसार चतुर्दिक हो सके तो देश व समाज का चिंतन बदलने की कोई सूरत निकल सकती है...!
तंज का स्वर है ये और फिर क्यूँ न हो
आपने ब्लॉग का नाम बहुत अच्छा रखा है ... शायद आपका व्यक्तित्व भी झलकता है ..आपको पढ़ना अच्छा लग रहा है . जब रचनाएँ सत्य को चित्रित करती है तो जीवंत हो जाती है ,..आपकी रचनाएँ ऐसी ही है . आपको शुभकामनाएं ..
Mujhe aisa pratit hota hai ki aapne jindagi ke har pahlu ko najdik se dekha ,samajha aur anubhav kiya hai. sahi satya ko udghatit kiya hai jise nakara nahi ja sakata hai. Achha post.Plz. visit my blog.
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सत्य को दर्शाती एक उत्कृष्ट रचना ।
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