भय और संकोच ने
घेर लिया
कुछ क्षण को धड़कनें
थम गईं
ऐसा लगा
चेहरा लाल हो गया
पोर-पोर ढीला
पैर कांप गए
नजर फिर गई
सच कहती हूं
मैं पहली बार
हया के मारे मर गई..
हुआ यूं कि-
रोज जिस आईने को -
देखती थी बन-संवरकर
उस आईने ने
देखना सीख लिया
और आज
जब मैं
नहा-धोकर
अचानक खड़ी हुई
सामने
मुझ
हास्यवदना
सिक्तवसना को
चोर आंखों से
उसने देख लिया।।
1 comment:
हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
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