कठिन नहीं होता
चुप-सी चीख
पी जाना
पत्थर-सा
दर्द सह जाना
सच कहता हूं
कभी नहीं खलता
रक्त के बहाने
हृदय का बह जाना
तकलीफ
तब होती है
जब
कोई आंख मूंद
होंठ सी-कर
हंसता है
किसी की
पीड़ा पर
पीसता है नमक
गहरे घाव पर
थोड़े-भर
स्वाद के लिए
और,
नमकीन मिजाज के लिए।।
Saturday, January 30, 2010
Friday, January 29, 2010
प्रिये!
क्षणिका-9
गीत-1
मत रो यूं, ऐ प्राण विकल
तुझको अभी संभलना होगा।
पथ जितना है, चलना होगा।।
मान दुःख-रजनी आज यहां
पीड़ा-पराग-मधु जाल यहां
माया के इस हरसिंगार से
तुझको साफ निकलना होगा।।
भंगुर है हर शूल पंथ का
भ्रामक है हर फूल अंक का
निद्रा की इस घाटी से
आंखे खोल गुजरना होगा।।
तम और सघन होता जाएगा
हर स्वप्न हवन होता जाएगा
चीर चदरिया कठिन मोह की
तुझको स्वयं संवरना होगा।।
शिखर सामने नत होने को
तेरे पास भी क्या खोने को
जन्म-मरण को लगा दांव पर
तुझे लक्ष्य-शर करना होगा।।
तुझको अभी संभलना होगा।
पथ जितना है, चलना होगा।।
मान दुःख-रजनी आज यहां
पीड़ा-पराग-मधु जाल यहां
माया के इस हरसिंगार से
तुझको साफ निकलना होगा।।
भंगुर है हर शूल पंथ का
भ्रामक है हर फूल अंक का
निद्रा की इस घाटी से
आंखे खोल गुजरना होगा।।
तम और सघन होता जाएगा
हर स्वप्न हवन होता जाएगा
चीर चदरिया कठिन मोह की
तुझको स्वयं संवरना होगा।।
शिखर सामने नत होने को
तेरे पास भी क्या खोने को
जन्म-मरण को लगा दांव पर
तुझे लक्ष्य-शर करना होगा।।
क्षणिका-8
अनथक हंसता रहा
मैं
उन्हें हंसाने को
उनके स्याह चेहरे पर
रौनक नहीं आई
कौन कहता है
चाहने भर से
हादसे
बिसर जाते हैं।।
मैं
उन्हें हंसाने को
उनके स्याह चेहरे पर
रौनक नहीं आई
कौन कहता है
चाहने भर से
हादसे
बिसर जाते हैं।।
क्षणिका-7
तुम्हारी
प्यार भरी
थपकी
मुझे भाने लगी
यही वजह है, शायद
कि अब
वो मुझे
सुलाने की जगह
जगाने लगी..
प्यार भरी
थपकी
मुझे भाने लगी
यही वजह है, शायद
कि अब
वो मुझे
सुलाने की जगह
जगाने लगी..
Thursday, January 28, 2010
क्षणिका-6
कभी धरा पर, कभी गगन में
कभी क्षितिज के पार थे।
छूम-छनन गाता था मन
वो किस वीणा के तार थे।।
माटी प्यारी लगती थी
जेठ-पूस ना भेद था।
अहो, पुनः वो दिन फिरि आते
जब जीवन निर्वेद था।।
काश लौट चलते उस जीवन
माटी-माटी राम निरखते।
थकते-गिरते और भटकते
आखिर, मां की गोद लिपटते।
कितना अच्छा होता हम-तुम
फिर मानुस बन जाते।
ढुलक कपोलों पर गिरते
आंसू मोती बन जाते।।
कभी क्षितिज के पार थे।
छूम-छनन गाता था मन
वो किस वीणा के तार थे।।
माटी प्यारी लगती थी
जेठ-पूस ना भेद था।
अहो, पुनः वो दिन फिरि आते
जब जीवन निर्वेद था।।
काश लौट चलते उस जीवन
माटी-माटी राम निरखते।
थकते-गिरते और भटकते
आखिर, मां की गोद लिपटते।
कितना अच्छा होता हम-तुम
फिर मानुस बन जाते।
ढुलक कपोलों पर गिरते
आंसू मोती बन जाते।।
Wednesday, January 27, 2010
क्षणिका-4
Monday, January 25, 2010
वन्दे मातरम्
शस्य-श्यामला
मलयजशीतला
मातृभूमि हे
तेरे सपूत
तेरे हित ही
रहें समर्पित
तन-मन
ये क्षणभंगुर
जीवन
वार सकें
न भूलें
बलिदान रीति
रहे चिरंतन
राष्ट्रप्रीति
चाहे जैसा भी
रण हो
और,
समर्पण का क्षण हो
प्रथम
मेरी ही
प्रस्तुति हो
तुझपर
जीवन
आहुति हो
हर जन गाए
हर मन गाए
ऐसा कोई तंत्र बने
व्यक्ति-व्यक्ति
गणतंत्र बने
साकार स्वप्न
बस हो मेरा
अक्षत हो
वैभव तेरा।।
मलयजशीतला
मातृभूमि हे
तेरे सपूत
तेरे हित ही
रहें समर्पित
तन-मन
ये क्षणभंगुर
जीवन
वार सकें
न भूलें
बलिदान रीति
रहे चिरंतन
राष्ट्रप्रीति
चाहे जैसा भी
रण हो
और,
समर्पण का क्षण हो
प्रथम
मेरी ही
प्रस्तुति हो
तुझपर
जीवन
आहुति हो
हर जन गाए
हर मन गाए
ऐसा कोई तंत्र बने
व्यक्ति-व्यक्ति
गणतंत्र बने
साकार स्वप्न
बस हो मेरा
अक्षत हो
वैभव तेरा।।
Saturday, January 23, 2010
Thursday, January 21, 2010
मेरे तुम
चरित्रहीन

सुबह सबह मैं करियाने की दुकान पर पहुंचा और दूध का पैकेट खरीदा। छुट्टा न होने के कारण दुकानदार को सौ का नोट देना पड़ा। मन ही मन सोच रहा था कहीं पुराना उधार न निपटाने लगे। मन ही मन राम राम करने लगा। किसी तरह दो मिनट बीते, कि उसने मुझे 140 रुपये निकाल कर पकड़ा दिए और दूध लिफाफे में रखने लगा। हिसाब से तो 10 रुपये दूध के देने के बाद मुझे सिर्फ नब्बे मिलने चाहिए थे। मैं कुछ हैरान हुआ, लेकिन माजरा समझ में आया तो अंदर ही अंदर प्रसन्न भी हुआ। उसने गलती से मुझे 10 के नोटों की गिनती में पचास का नोट पकड़ा दिया था। दो मिनट दुकान पर खड़े रहकर मैंने उससे इधर-उधर की बातें कीं, फिर जब पक्का हो गया कि उसका ध्यान पैसे की तरफ नहीं है, मैं दबे पांव खिसक लिया। घर आकर लंबी सांस ली। मुझे लग रहा था कि मैंने चोरी की है और दुकानदार को पैसे वापस कर देने चाहिए, लेकिन लोभ तुष्ट था। तात्कालिक लाभ चरित्र पर भारी पड़ गया। चाहकर भी मैं पैसे उसे वापस नहीं कर सका। सोचता हूं अच्छा दिखने और अच्छा होने में कितना फर्क है और अच्छा होना इतना मुश्किल क्यों है।
Tuesday, January 19, 2010
क्षणिका-2

सौ दीप जलाकर
सोचा था
धरती का
अंधियार मिटेगा
मावस की
निशिचरी रात का
थोड़ा तो
आकार घटेगा
सोचा था
संध्या के आंगन
कोई
उजास की
किरण जनेंगे
और
जरूरत पड़ी
कहीं तो
हम भी
बाती-दीप
बनेंगे
मिटा
मिटाने को-
अंधियार
धोया स्वप्नों
का अहंकार
मैंने निथार
कर हृदय
वर्तिका
ज्योतित की
नयनों में
रक्त जमा
वेदना-
पोषित की
किंतु,
अंधेरा
छंट न सका
आकार
निशा का
घट न सका
संभव था कोई
चमत्कार
हो जाता
दीपित
निराकार
किंतु,
मूढ़ हठ
मिट न सका
दीया माटी से
उठ न सका।।
Monday, January 18, 2010
क्षणिका-1
Thursday, January 14, 2010
विवेकानंद को याद कर

सत्य के लिए
प्राण उत्सर्ग चाहिए
जीवट सा संघर्ष
न्याय के लिए जिए जो
सिरजे तो माधुर्य
बाँट दे अमिय
गरल को
स्वयं पिए जो
वो!
विवेक से पूर
चूर आनंद नित्य
चितवन में आश्वस्ति
अभय की दृष्टि
कहा जिसने
देश के भाग्य
नहीं सोने दूंगा
जीवन भर मैं जाग
अहो मेरे भारत!
तुझे सौभाग्य-नक्षत्रों की
शैय्या दूंगा
और, जागा जो..
जिसके सिंहनाद से
टूटी मरण-नींद
चीर तम-घना
मनुज ये धन्य बना
पुनः,
सुने यह देश
विवेकानंद जन्म दे
कोई परमहंस दे
जो जिए
और, मर सके
तेरे ही लिए
चाहिए-
आग-का वही
धधकता-सा गोला
जिसकी जिह्वा से सदा
राष्ट्र-गौरव बोला
एक बार
फिर वही
समर्पित पूत
पूरब-पच्छिम
उत्तर-दक्षिण
मणि-मुक्तक-सा
गूंथ सके
दृढ सूत
नगर-नगर से
ग्राम-ग्राम से
आहुति इच्छित
फिर कृष्ण-राम से
दे-दे वैभव
इस धरती को
स्वत्व मिटाकर
दांव लगाकर
खेल सके जो
प्राण लुटाकर
मरे मनुज को
जिला सके
गोरे-काले को
मिला सके
पुत्र नहीं
पाषाण जने
जो हन्ता हो
हर वक्र-दृष्टि का
सृजन करे जो
नयी सृष्टि का
माएं
ऐसा वरदान बने
और, यदि
ऐसा संभव हो न सके
पृथ्वी फूलों से
भर न सके
तो,
महाशोक के
दावानल की
इस भंगुर
संसृति हलचल की
आज प्रभो!
संध्या कर दे
ये नपुंसकों की
प्रसव-भूमि
बंध्या कर दे।
Wednesday, January 6, 2010
अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा...
समाचार पत्रों की सुर्खियों में तैर रहे तीन प्रकरण वक्त के माथे पर कलंक का गहरा दाग बनकर रह गए हैं। एक-दूसरे के समानांतर सफर कर रहे ये घटनाक्रम जाने कितने सुलगते सवाल छोड़ते जा रहे हैं। सवाल आधी-आबादी का है, इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहला प्रकरण है रुचिका से छेड़छाड़ और उसकी आत्महत्या का। दूसरा, पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों से कथित यौनाचार का और तीसरा ‘आश्रय' में मानसिक रूप से विकलांग युवती के साथ बलात्कार का। तीन में से दो, हाईप्रोफाइल मामले हैं। इनमें पुलिस के उच्चपदस्थ अधिकारियों की संलिप्तता है। अधिकारी भी वे, जिन्हें राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त है। स्वयं वजीर-ए-आला जिन्हें बचाना चाहते हों, उनका बाल कोई बांका कर भी कैसे लेगा? रुचिका से छेड़छाड़ के आरोपी और अंतत: उसकी आत्महत्या के जिम्मेदार पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर का सीबीआई कोर्ट से ‘मुस्कुराते हुएज् निकल आना इस बात का गवाह है कि उसने अपने रसूख का ‘पूर्ण सदुपयोग' किया। न्याय के लिए 19 वर्ष के लंबे संघर्ष में एक परिवार ने अपने आप को टूटते-बिखरते और मिटते देखा है। सुभाष गिरहोत्रा की उमर बेटी के दर्द में पिहुकते निकल गई। प्रशासनिक सेवा में आने का सपना देख रहे रुचिका के भाई आशु गिरहोत्रा की आंखें पथरा गईं। खौफ का आलम यह है कि तमाम सुरक्षा दावों और प्रयासों के बावजूद गिरहोत्रा परिवार अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। रुचिका की भाभी कविता के शब्दों में, ‘मेरी छोटी-सी बेटी है। उसे स्कूल भेजने से कतराती हूं। भले ही राठौर को सजा हो गई है, किंतु उसकी पहुंच ऊपर तक है। मैं डरती हूं।ज् लंबे अरसे तक चले संघर्ष के बाद एक परिवार, जिसकी आने वाली नस्ल में भी खौफ ही खौफ है, उसे कैसे उबारा जा सकेगा, यह एक यक्षप्रश्न है। एेसा न्याय किस काम का, जो आदमीयत की सुरक्षा के लिए संकट बन जाए? भले ही केस की फाइल री-ओपन हो चुकी है, लेकिन क्या पीड़ितों को समुचित न्याय मिल सकेगा?दूसरा मामला पुलिस अकादमी में महिला पुलिसकर्मियों के यौनशोषण का है। यहां भी आरोपी उच्चपदस्थ हैं और रौब-रुतबे वाले हैं। इसका सबूत भी मिल चुका है। आरोपियों के खिलाफ गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट और आनन-फानन में उनको दी गई क्लीनचिट ने अफसरशाही और राजनीति के सरोकारों की मजबूत मिसाल कायम की है। रुचिका प्रकरण की ही तर्ज पर यहां भी आरोपित अफसरान बौखलाए घूम रहे हैं और मुद्दे को उठाने वालों के खिलाफ केस पर केस किए जा रहे हैं। समाचार प्रकाशित करने वाले पत्र को नेस्तनाबूंद करने की कोशिश की जा रही है। राजनीति का बल मिला हुआ है, सो न्यायतंत्र भी खामोश बैठा है। कुछ लोग जहां मसले को सिर्फ चर्चा तक ही सीमित देख रहे हैं, तो कुछ इसे राज एवं न्यायतंत्र का अंधापन मानकर आवाज भी उठा रहे हैं, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही है। तीसरा प्रकरण ‘आश्रय' में मानसिक विकलांग युवती से बलात्कार का है। यह मामला पूरी तरह से आम आदमी का है और दोष सिद्ध हो चुका है। आरोपी छोटूराम ने अपराध स्वीकार कर लिया है। न उसके पास राजनीतिक रसूख है, न पानी की तरह से बहाया जा सके, इतना पैसा। उसकी स्वीकारोक्ति को उसकी मजबूरी कहा जाए, या पश्चाताप? एक कदम आगे जाकर उसकी पत्नी चमेली ने बलात्कार पीड़िता से जन्मी ‘कुदरत को अपनाने के लिए भी गुहार लगाई है। उसकी वजह भी है। छोटू को सजा तय है और उसके बाद परिवार का कोई खेवनहारा नहीं है। आगे दो मासूम बच्चियां हैं, जिनका कोई कसूर नहीं है। बाप के पाप का प्रायश्चित वो करें, यह न्यायोचित नहीं है। तीनों प्रकरण सं™ोय हैं। किसी को सजा मिले या नहीं, उनके दोष कम नहीं हो जाते। मुद्दे की बात यह है कि तीनों मामलों में पीड़ित ‘आधी आबादी' है। जिनकी आबरू के चीथड़े उड़े हैं, वो इस देश की हैं। इन तीनों कांडों से समाज कलंकित हुआ है। चाहे प्रशासन को दोष दें, चाहे न्यायतंत्र को, पीड़ितों का दर्द कम नहीं किया जा सकता। हां, एक एेसा तंत्र विकसित जरूर किया जा सकता है, जो भविष्य में एेसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सके। राठौर जसों को पैदा होने से नहीं रोका जा सकता, न छोटूराम जसों को पनपने से। हां, इनको कठोरतम सजा देकर एक सबक जरूर कायम किया जा सकता है। एेसे लोगों के मुंह पर थूककर, इनका सामाजिक बहिष्कार करके। यह ज्यादा बुरा तो नहीं है.। जब नीति-न्याय की समस्त संभावनाएं क्षीण पड़ जाएं, तो समाज को स्वयं कुछ कठोर फैसले करने चाहिएं। तीनों मामलों में जिनपर आरोप लगा, अथवा दोष सिद्ध हुए, उनमें एक पूर्व डीजीपी, दो वर्तमान डीजीपी और तीसरा एक अदना सा सिक्योरिटी गार्ड है। पद और प्रतिष्ठा में भले फर्क रहा हो, परंतु तीनों के दायित्व बेहद महत्वपूर्ण थे। सभी पर सामाजिक सुरक्षा के गंभीर दायित्व थे। कहते हुए शर्म आती है कि इज्जत के रखवाले ही उसे मटियामेट कर गए। काया और रुतबे का जो अंतर दिख रहा है, उसके भीतर की पापिन आत्मा एक ही है। सवाल एक है.हर शाख पे.बैठे हैं, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा?
Friday, January 1, 2010
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