पीर मचलती पार क्षितिज के
छू लो मेरे मन।
हंस लो मेरे मन।।
वट की स्नेहभरी छाया हो
फिर भी कहां पनपता जीवन?
कैसे कह दूं मिल जाएगा
तुमको सपनों का उपवन।।
यों न लिपट जड़संकुल से
झूलो मानस-घन।
शून्य ससीमित माना मैने
देख तुम्हारी पीड़ा पागल।
अंक दग्ध हो गया लहू से
धधक उठा मेरा उर घायल।।
घूम-घूम कोने-अंतरे
सरसो प्रेम-सुमन।।
पीर मचलती पार क्षितिज के
छू लो मेरे मन।
हंस लो मेरे मन।।
3 comments:
achhi lagi rachna
बड़े दिनों बाद पढ़वाया आपने हमें अपने आप को|
"तुमको सपनों वाला उपवन" के माध्यम से बहुत गहरी बात कही है आपने| बधाई|
सुदर गीत अच्छा लगा पढकर. कुछ ताजगी आ गयी
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