
चाहता हूं जब
कि, कह दूं
खिलखिलाकर तुम हंसो
एक बरछी वेदना की
घातिनी बन बींध जाती है...
चाहता हूं जब
कि, तुम
दृढ़व्रती हो कुछ कहो
वज्र-सी बिजुरी
हृदय को चीर जाती है...
मौन में बैठे
तुम्हें जब देखता हूं
श्वास की गहराइयों में
निर्दयी-सी पीर
दृगभर नाच जाती है...
चाहता संवाद मन
जब तुम्हारे अश्रुओं से
कांपती कोई हवा
स्वर-शिखाओं को बुझा
दीप-उर को तोड़ जाती है...
क्या करूं निज नेह का
चाहता जो तुम हंसो
अधर से लिपटी
विषैली वेदना को पंख दो...
क्या करूं वो भावना
चाहती तुम मुखर हो
मरण-उन्मुख आस्था को
निज परस से प्राण दो...
मानता...हां, मानता हूं
मौन सबकुछ बोलता है...
शब्द के सीमांत के
भेद सारे खोलता है
किंतु, मेरे आत्मन!
प्रीति मेरे! प्राणघन!
कैसे कहूं-निस्तब्धता
अब बहुत ही दाहती है...
मौन की विषमय तरलता
आत्मा को मारती है...