
जागो मेरे देश
बहुत ही कठिन घड़ी है।
हर ओर राडिया-सी
सुरसा मुंहखोल खड़ी है।।
राजाओं के जाने कितने
छल उघड़ेंगे।
बरखाओं के पट से जब
कंचुकि खिसकेंगे।।
वीर तुम्हारे जाने कितने
अभी पड़े हैं।
सतरंगी घोटालों में
आकंठ गड़े हैं।।
पूंजीपतियों की आस्तीन
में ही नाग पले।
शनैः-शनैः टाटा-अंबानी
सबके खेल खुले।।
क्षण में लाख-करोड़ों के
मसविदे तयार हुए।
किसने देखा कर्जतले
कितने तन छार हुए।।
सेंसेक्स की संख्या पर
खूब उछलता था।
कंगाल राष्ट्र बस दावों में
आगे बढ़ता था।।
राजनीति के हाथों में
आकर निचुड़ गए।
पेट गरीबों के
भूख से सिकुड़ गए।।
सत्ता मूक-बधिर है
महिषी अंधी है।
दुःशासन हंस रहा
द्रौपदी नंगी है।।
जुए में सब फंसे
भेद कौन खोलेगा।
रार ठनेगी, भीष्म
अगर बोलेगा।।
सोचा था, कुछ न्याय
पालिका तोलेगी।
और, जरूरत पड़ी
मूक जनता बोलेगी।।
भ्रष्टतंत्र के धुरविरोध में
लोग चलेंगे।
पाषाण हो चुके देव
तनिक तो पिघलेंगे।।
मुट्ठियां भिंचेंगी
उर में भूचाल उठेगा।
जिस्मों पर तारी
कायरता का जाल कटेगा।।
देख रहा हूं, किंतु
यहां सब उलटा है।
हर शख्स मौज में
और, व्यवस्था जिंदा है।।
लगता है उम्मीदें
सब बेमानी हैं।
लहू नहीं, अब जिस्म-
जिस्म में पानी है।।