तदात्मानं सृजाम्यहम्
Sunday, August 26, 2012
Saturday, August 25, 2012
Friday, July 27, 2012
तिवारी जी, जीते तुम्हीं हो...
लाइव टेलिकास्ट ने माहौल ऐसा रचा है कि देखे बिना नहीं रहा जाता। चश्मा उतारकर, सिर झुकाकर आंख पर हाथ फेरते एनडी तिवारी, चश्मा चढाए छाती तानकर तीक्ष्ण कटुक्तियों के सहारे सत्यविजय का उद्घोष करती उज्ज्वला शर्मा...। एक के बाद एक दोनों के चेहरों कैमरे पर नचाए जा रहे हैं । उज्ज्वला आज किलक रही हैं-तिवारी ऐसे, तिवारी वैसे। वो कह रही हैं-ये सत्य की जीत है। तनिक कोई पूछे किस सत्य की जीत है। सत्य रह ही कहां गया था इस षड्यंत्रकारी खेल में। क्या वो कोई अलग सत्य है जिसका दंभ उज्ज्वला भर रही हैं। सत्य तो उसी दिन मटियामेट हो गया था जिस दिन श्रीमती उज्ज्वला अपने श्रीमान बीपी शर्मा से बावस्ता होते हुए भी बारास्ता एनडी तिवारी मां बनने के लिए उनके बिस्तर में घुसी थीं। एक सत्य यह था कि वे किसी और की श्रीमती थीं। एक सत्य था कि उनके पति उन्हें मातृसुख दे पाने में अक्षम थे। एक सत्य था कि उनके भीतर वासना-पुत्रकामना बरजोर थी। एक सत्य था कि उन्हें इसके लिए किसी और के संग हमबिस्तर होने से कोई गुरेज न था। प्रेम के पांखड में एक आदमकद व्यक्तित्व से यौनेच्छा शांत करने की आग एक सत्य ही थी। डीएनए का सत्य यदि सत्य है तो यह साफ है कि बाकी सब सत्य भी शिखरसत्य हैं। इन सत्यों को सिद्ध करने के लिए किसी डीएनए परीक्षण की अनिवार्यता नहीं, किसी आयोग की आवश्यकता नहीं, किसी न्यायालय और न्यायमूर्ति की दरकार नहीं। एक डीएनए रिपोर्ट ने यह सब सिद्ध कर दिया है। उज्ज्वला जी, तुम एक सत्य जीतकर सौ सत्य हार गई हो और तिवारी जी एक सत्य हारकर भी बाक सब सत्य जीत गए हैं। अंतिम जीत उन्हीं की रही है।
Monday, July 23, 2012
प्रेम का अमृत
जीवन के घट में
जितना जल आया
मैंने पीया-औरों को पिलाया
तुम पास आए, बैठो
तुम्हें भी तृप्ति मिलेगी
जल नहीं बचा
मैं तो
तुम्हारे लिए
ले आया...
Tuesday, January 10, 2012
ख्याल
एकबार ख्याल आया-धर्म इस संसार में कितना निंदनीय हो गया है, फिर इस पथ क्यों चलना चाहिए। फिर मैंने संगति बदल दी। अब सोचता हूं कि निंदा करने वाले हैं ही कितने और हमें धर्मपथ पर ही क्यों नहीं चलना चाहिए।
कुत्ता हड्डियां चबाता है...सूखी हड्डियां उसी की जिह्वा और जबड़े को काट डालती हैं...अपने ही खून को पीता हुआ वो कितना मगन रहता है? आज का मनुष्य भी अपवाद नहीं रहा। जीवन-रस सूख चुका है, बस ईर्ष्या और पाखंड की सूखी हड्डियां ही उसके जीवन का स्वाद रह गई हैं।
हम उसकी आवाज नहीं सुन रहे। कौन नहीं जान रहा कि जीवन एक-एक दिन मौत की ओर सरक रहा है...कालपुरुष बड़ी निर्दयता से गला घोंटने को तैयार है...चिता बिछी पड़ी है...सिर्फ कुछ श्वासों की देर है...कौन सी श्वास अंतिम होगी, बस इसी का तो इंतजार है हम सबको..
कुत्ता हड्डियां चबाता है...सूखी हड्डियां उसी की जिह्वा और जबड़े को काट डालती हैं...अपने ही खून को पीता हुआ वो कितना मगन रहता है? आज का मनुष्य भी अपवाद नहीं रहा। जीवन-रस सूख चुका है, बस ईर्ष्या और पाखंड की सूखी हड्डियां ही उसके जीवन का स्वाद रह गई हैं।
हम उसकी आवाज नहीं सुन रहे। कौन नहीं जान रहा कि जीवन एक-एक दिन मौत की ओर सरक रहा है...कालपुरुष बड़ी निर्दयता से गला घोंटने को तैयार है...चिता बिछी पड़ी है...सिर्फ कुछ श्वासों की देर है...कौन सी श्वास अंतिम होगी, बस इसी का तो इंतजार है हम सबको..
Sunday, January 1, 2012
चल रे साथी
आगत के स्वागत का ये पल
विस्मृत कर दे दुःखभरा कल
मधु गीतों से झूम उठे मन
नयनों में भर सपन नवल
चल रे साथी...नई जगह चल।।
बहुत हो चुका रोना-धोना
न कुछ पाना न अब खोना
धरती से उठकर चल दें
बनें शून्य का नीलकमल।।
चल रे साथी...नई जगह चल।।
बरस-बरस बस बीत रहा
आगत कभी अतीत रहा
अब यथार्थ को जीना सीखें
बहुत सह चुके समय का छल।
चल रे साथी...नई जगह चल।।
विस्मृत कर दे दुःखभरा कल
मधु गीतों से झूम उठे मन
नयनों में भर सपन नवल
चल रे साथी...नई जगह चल।।
बहुत हो चुका रोना-धोना
न कुछ पाना न अब खोना
धरती से उठकर चल दें
बनें शून्य का नीलकमल।।
चल रे साथी...नई जगह चल।।
बरस-बरस बस बीत रहा
आगत कभी अतीत रहा
अब यथार्थ को जीना सीखें
बहुत सह चुके समय का छल।
चल रे साथी...नई जगह चल।।
Friday, December 30, 2011
पूर्वजन्म, सच, मसीह, रावण
आज हरिद्वार से लौटा हूं...वहां "पूर्वजन्म" के एक मित्र से भेंट हुई। ठीक एक जन्म पहले हम एक-दूसरे को जानते रहे होंगे। ध्यान करते समय गहरी अनुभूति हुई। इस बार "सुरसरि" का वेग तीव्र था। स्नान करने उतरा तो लगा जम गया हूं। मुश्किल से पांच डुबकियां लगाईं। रामकृष्ण परमहंस होते तो कहते-एक भी डुबकी ढंग की न लगी। लग जाती तो बाहर क्योंकर दिखते?
जो कहूंगा, सच कहूंगा। सच नहीं कह सका तो भी चुप नहीं रहूंगा। क्योंकि...यदि मैं सच न हो सका तो और कौन हो सकेगा?
जो मेरी प्रशंसा करते हैं और जो मेरी निंदा करते हैं-वे उस परमात्मा के बनाए कभी नहीं हो सकते जो प्रशंसा और निंदा, सुख और दुःख, मान और अपमान जैसे द्वंद्वों के पार है। उनका सिरजनहार कोई और ही है। जो किसी और का है, वो बस दया का पात्र है। इस संसार में प्रभु की संतानों को छोड़ शेष सब दीन हैं।
ईसा मसीह कहते हैं-हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं। मैं कहता हूं-हे प्रभु, इन्हें तब भी क्षमा करना जब ये जान रहे हों कि ये क्या कर रहे हैं?
रावण मूर्ख है। वो नकली संत बनता है...घड़ीभर के लिए। भिक्षा मांगता है सीता से। सीता एक झूठे ऋषि के लिए भी सारी सीमा-रेखाएं पार कर जाती हैं। कितनी उदारता है..। एक झूठे संत के संग का फलन यह है कि उसे बरसों कठिन यंत्रणा में राक्षसों के बीच बिताना पड़ता है। और रावण, इतना मूढ़...समझ ही नहीं पाता कि यदि क्षणभर का झूठा साधुपना सीताजैसी दिव्यशक्ति की निकटता बरसों तक दे सकता है तो सच्चा संत बन जाने पर क्या होगा?
जो कहूंगा, सच कहूंगा। सच नहीं कह सका तो भी चुप नहीं रहूंगा। क्योंकि...यदि मैं सच न हो सका तो और कौन हो सकेगा?
जो मेरी प्रशंसा करते हैं और जो मेरी निंदा करते हैं-वे उस परमात्मा के बनाए कभी नहीं हो सकते जो प्रशंसा और निंदा, सुख और दुःख, मान और अपमान जैसे द्वंद्वों के पार है। उनका सिरजनहार कोई और ही है। जो किसी और का है, वो बस दया का पात्र है। इस संसार में प्रभु की संतानों को छोड़ शेष सब दीन हैं।
ईसा मसीह कहते हैं-हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं। मैं कहता हूं-हे प्रभु, इन्हें तब भी क्षमा करना जब ये जान रहे हों कि ये क्या कर रहे हैं?
रावण मूर्ख है। वो नकली संत बनता है...घड़ीभर के लिए। भिक्षा मांगता है सीता से। सीता एक झूठे ऋषि के लिए भी सारी सीमा-रेखाएं पार कर जाती हैं। कितनी उदारता है..। एक झूठे संत के संग का फलन यह है कि उसे बरसों कठिन यंत्रणा में राक्षसों के बीच बिताना पड़ता है। और रावण, इतना मूढ़...समझ ही नहीं पाता कि यदि क्षणभर का झूठा साधुपना सीताजैसी दिव्यशक्ति की निकटता बरसों तक दे सकता है तो सच्चा संत बन जाने पर क्या होगा?
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